Tuesday, October 6, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 18


टिकट-दौड़

वरदान

टिकट मुझे मिल जाय बस, दो ऐसा वरदान।
इस पर यों कहने लगे मुस्काकर भगवान।।
जा रे जा नादान! अभी झट फल पाएगा।।
बस का टिकट खरीद फटाफट मिल जाएगा।।

घाव

टिकट ना दे जब पार्टी, लगता गहरा घाव।
नेता जुड़ा जमीन से, कैसे लड़े चुनाव?
करना हो बदलाव, खोल किस्मत के ताले।
यहाँ टिकट पा जाँय जमीं खिसकाने वाले।।

टिकट-बावले

रहे भटकते रात-दिन, टिकट-बावले लोग।
पापड़ बेले बहुत पर, बचा नहीं कुछ योग।।
घातक कुर्सी रोग, व्यर्थ ही धक्के खाए।
बस का टिकट खरीद बावले घर को लाए।

हल्ला

टिकट मुझे दे दीजिए, मैं आऊँगा काम।
शोर मचाने में रहा, मेरा ऊँचा नाम।।
आएँगे परिणाम, रहूँगा नहीं निठल्ला।
असेम्बली में खूब मचाऊँगा मैं हल्ला।।

वंशवादी

भाई-भतीजा-भार्या, नाती-रिश्तेदार।
काबिल ये ही टिकट के, बाकी सब बेकार।।
दिखता बस परिवार, वंशवादी सब चंगे।
इस हमाम में हमें दिखें सारे दल नंगे।।

टिकट मेल

इस्तीफे की मिसाइल, उठा रही तूफान।
जान हाईकमान की, बिदकी संकट जान।।
अटक गया अभियान, भाँप मौसम का खतरा।
टिकट मेल अब लेट, कहीं पटरी से उतरा।।

मलाई

बेटा, पोता, दोहिता, पत्नी या दामाद।
टिकट दिलाते वक्त ये रहे आपको याद।।
हम क्या जाने स्वाद, छाछ जब हमें पिलाई।
वे डलवाएँ वोट मलाई जिनने खाई।।

मचान

ज्ञापन, उग्र-प्रदर्शन, जलते हुए बयान।
इस्तीफों की धमकियाँ, ढहते हुए मचान।।
कहीं नया अभियान, कहीं चिट्ठी तूफानी।
टिकट बाँटिए ठीक छोड़ अपनी मनमानी।।

विचित्र खबर

सीधा सच्चा आदमी, उज्जवल रहा चरित्र।
टिकट मिल गया उसे तो, होगी खबर विचित्र।।
गंध रहित अब इत्र, आज लगता है ऐसा।
टिकट दिलाए जाति; जोर; तिकड़म या पैसा।।
 
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल

सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
ईमेल : kavidube@gmail.com

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