बागी
आशा
पकड़े टीटी भी नहीं, किस्मत का हो योग।बिना टिकट भी पहुँचते, मंजिल तक कुछ लोग।।
भीषण कुर्सी-रोग, खूब जब आशा जागी।
चढ़े ट्रेन में साथ निर्दली-दागी-बागी।।
फालतू-पालतू
बागी आवत देखकर बोला उम्मीदवार।जैसे भी हो रोक दो, तुम इसकी रफ्तार।।
जान बचाओ यार, तिकड़में सब अजमाओ।
तजा फालतू जान पालतू उसे बनाओ।।
हार में जीत
केवल एक अनार है, और कई बीमार।सारे ही बीमार अब, जता रहे अधिकार।।
जीत मिले या हार, नहीं है अन्तर भारी।
टिकट मिले की हार समझिए जीत हमारी।।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल
सम्पर्क : 0141-2757575
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