Saturday, October 1, 2016

अब कोई भी क्यों सकुचाए

टूट गया अवरोध समूचा, अब कोई भी क्यों सकुचाए?
जिसको जाना है वह जाए, जिसको आना है वह आए ।।
    एक सुरक्षित पिंजरे सा जग
    हर कोई तोता बन जाता
    बन्धन-बोध मुखर होता है
    तब मन उडऩे को ललचाता
देखो खुला हुआ है पिंजरा, अब कोई भी क्यों सकुचाए ?
जिसको रहना है वह रह ले, जिसको उडऩा हो उड़ जाए।।
    सम्बन्धों में अनुबन्धों ने
    प्रतिबन्धों का पाश बनाया
    जिसमें बन्दी मन का पंछी
    पल भर को भी चहक न पाया
पाश स्वत: ही कटा पड़ा है, अब कोई भी क्यों सकुचाए ?
जिसको रोना है वह रोए, मुस्काना है वह मुस्काए।।
    बहते जल जैसा है जीवन
    नदिया उफन रही हो जैसे
    घटाटोप बादल बरसे हैं
    आप्लावन रुक पाए कैसे ?
सुन लो ये तटबन्ध कह रहे, अब कोई भी क्यों सकुचाए ?
जिसमें साहस हो वो तैरे, बह जाए जो तैर न पाए।।
    इस मधुशाला में हैं सब ही
    प्राय: भोगों के अभ्यासी
    ऐसे राजकुँअर भी आते
    बन जाते हैं जो सन्यासी
अपना-अपना चयन है प्यारे, अब कोई भी क्यों सकुचाए ?
जिसे बुद्ध बनाना है बन ले, नहीं तो वह बुद्धु कहलाए ।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
ईमेल : kavidube@gmail.com

Friday, November 20, 2015

गीत : मोक्ष पथ

जितने घाव दिए हैं तुमने, वे मैंने इसलिए सहेजे ।
नयन नीर से पीड़ाओं की औषधियाँ तैयार करूँगा ।।
    मैं तो ऐसा घर हूँ जिसमें
        मात्र वेदनाएँ रहती हैं
    निकली जो नयनों से नदियाँ
        पहले वे भीतर बहती हैं
जितने घाव लिए हैं तुमने, वे सब वंशवृद्धि में रत हैं
घावों की इस वंशबेल का सींच-सींच सत्कार करूँगा ।।    
    हो सकता है पूर्वजन्म में
         मैंने कुछ पीड़ाएँ दी हों
    सम्भव है वे पुनर्भरण में
        तुमने मुझे समर्पित की हों
जितने घाव दिए हैं तुमने, वे उस ऋण का चुकतारा हैं
पाउँगा-जीऊँगा इनको, आगे नहीं उधार करूँगा ।।
             जीवन खाताबही सरीखा
                  लेनदेन सारे हैं अंकित
             सौदा कोई नया न करलूँ
                  सोच-सोचकर हूँ आतंकित
जितने घाव दिए हैं तुमने, सहनशक्ति को परख रहे वे
हँसकर सहन करूँगा लेकिन आगे नहीं उधार करूँगा ।।
    किसे पता है इस दुनिया में
        कितनी बार और आना है ?
    आए तो भी क्या होंगे हम
        यह रहस्य किसने जाना है ?
जितने घाव दिए हैं तुमने, वे सब हैं अनमोल धरोहर
भीतर-भीतर ही दहकूँगा, व्यक्त किन्तु आभार करूँगा ।
    मेरे पास पुष्प हैं केवल
        तुम चाहे सारे ले जाओ
    मैं न कभी उल्हाने दूँगा
        चाहे प्रतिपल शूल चुभाओ
जितने घाव दिए हैं तुमने ,वे सबके सब हरे-हरे हैं
प्रायश्चित के पावन पथ का , मैं इनसे शृंगार करूंगा ।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Thursday, November 19, 2015

गीत : देह...

जो भी कहना है वो कहदो, फिर न ये अवसर मिलेगा
जा रहा हूँ दूर इतना, मिल न पाऊँगा बिछुड़कर

चिर विदाई के परम पावन क्षणों में
     तोड़कर संकोच खुलकर कह रहा हूँ
देखना चाहा नहीं तुमने कभी भी
      मैं तुम्हारे ही हृदय में रह रहा हूँ

भूल जाओ आज नयनों को मुझे मन से निहारो
चित्र ऐसा हूँ पुन: जो बन न पाएगा बिगड़कर

पूछते हो क्या है जीवन तो समझ लो
     जल पे उभरे बुलबुले जैसी कथा है
मृत्यु के पश्चात जीने की ललक में
      मात्र पश्चाताप से उपजी व्यथा है

स्वयं से संवाद करते तो इसे तुम यों समझ पाते
रसवन्त होता ही नहीं है फल पुन: जैसे निचुड़कर

मोह ने अन्धा किया, लालच ने बहरा
मद कभी आहत हुआ तो क्रोध आया
काम कुण्डली मारकर बैठा है मन में
स्वार्थ ने मस्तिष्क को पागल बनाया

उम्र की अनमोल पूँजी घट रही प्रतिपल समझना
देह! ये उद्यान फिर न लहलहाएगा उजड़कर

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Wednesday, November 18, 2015

गीत : दिवगंत पिता के प्रति

यह प्रलय सी खिन्नता रोती नहीं गाती नहीं है
भूल तो पाया नहीं पर याद भी आती नहीं है ।।

      शुष्क-सोयी चेतना चंचल बहुत है
    वेदना के प्राण में हलचल बहुत है
      अब नदी भी रेत की ही पर्त है पर
    रेत के नीचे अभी भी जल बहुत है
यह सघन जलराशि लेकिन सिन्धु तक जाती नहीं है
भूल तो पाया नहीं पर याद भी आती नहीं है ।।

      उस समूचे दृश्य से मैं डर गया था
          मन तुम्हारे साथ में ही मर गया था
      एक भी आँसू न निकला आँख से पर
          उर समूचा आँसुओं से भर गया था
यह प्रबल संवेदना भी मोह बरसाती नहीं है
भूल तो पाया नहीं पर याद भी आती नहीं है

     साथ में फिर से तुम्हारे मैं खिलुंगा
    यह अटल व्रत है न मैं इससे टलुंगा
      मेघ ज्यों मिलते परस्पर हैं गगन में
      मैं कभी तुमसे पुन: आकर मिलुंगा
कड़कडाती दामिनी मुझको डरा पाती नहीं है
भूल तो पाया नहीं पर याद भी आती नहीं है ।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Monday, November 16, 2015

काल-चिंतन

कौन जानता है जीवन के अगले पल में क्या होना है ?
बुझते-बुझते कई जल गए, कई बुझ गए जलते-जलते ।।
    समझो तो अपने जीवन में
        आने वाला पल कैसा है ?
    जिसमें घुप्प अँधेरा केवल
        ऐसी एक गुफा जैसा है!
उसी गुफा के भीतर जाकर मैंने बार- बार देखा है
रुकते-रुकते कई चल पड़े, कई रुक गए चलते-चलते ।।
    जग में आए और गए सब
        जब-जब जैसा जिसका क्रम था
    कई लोग ऐसे भी देखे
        जिन्हें सूर्य होने का भ्रम था
तम के सम्मुख समरांगण में उदय-अस्त का खेल निराला
उगते-उगते कई ढल गए, कई उग गए ढलते-ढलते ।।
    बिना चले कुछ आगे निकले
        कुछ दौड़े पर हमसे पिछड़े
    कुछ सहयात्री साथ चले तो
        कुछ यायावर असमय बिछुड़े
सम्बन्धों के इस अरण्य में, पृथक-पृथक प्रारब्ध सभी का
भाते-भाते कई खल गए, कई भा गए खलते-खलते ।।
    सपने सा संसार सलौना
        जीने का रोमांच सघन है
    पर भविष्य से अनुमानों की
        जैसे जन्मजात अनबन है
हर रहस्य के सिंहद्वार पर, लटके हुए नियति के ताले
खुलते-खुलते कई छल गए, कई खुल गए छलते-छलते।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
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Saturday, November 14, 2015

सृष्टि चक्र

पेड़ से पत्ते पुराने झड़ रहे हैं
    कोंपलों के मुस्कुराने का समय है ।

देखिए तो वृक्ष की इस सम्पदा को
       जो हरे थे वे सभी पीले पड़े हैं
ज्यों नई सम्भावनाओं से सहमकर
     आज नतमस्तक हुए अनुभव खड़े हैं

नियति की गति में छिपा विध्वंश है तो
     नीड़ फिर नूतन बनाने का समय है

वे स्वत: ही टूटकर अब गिर गए हैं
       जिनको आँधी तक कभी न तोड़ पाई
फूल-फल-पत्ते जो बिछुड़े हैं शाख से तो
         शक्ति कोई भी पुन: न जोड़ पाई

कूकती कोयल मचलकर कह रही है
      सृजन के नवगीत गाने का समय है

पल्लवित-पुष्पित स्वत: फिर पेड़ होगा
       फिर इन्हीं सब टहनियों पर फल सजेंगे
फल जो मिट्टी में मिले थे, बीज बनकर
       रूप वे भी वृक्ष का धारण करेंगे

हर गमन की ओट में फिर आगमन है
        मृत्यु के उस पार जाने का समय है

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Saturday, October 24, 2015

मेरा भारत महान

जरूरत से ज्यादा विकसित
देश के वासी ने मुझसे पूछा-
अगर आपका भारत महान है
तब संसार के
इतने सारे आविष्कारों में
उसका क्या योगदान है?

मैंने कहा-यार!
संसार की पहली
फायर प्रूफ लेडी
इण्डिया में पैदा हुई थी
नाम था- होलिका
आग में जलती ही नहीं थी
इसलिए उस जमाने में
फायर ब्रिगेड चलती ही नहीं थी

यह तो हिरण्यकश्यप ने
प्रहलाद को मारने का
षड्यंत्र किया
इसलिए भगवान ने
उसकी बॉडी में
शॉर्ट सर्किट कर दिया
भगवान की
तरकीब चल गई
होलिका जल गई

संसार की पहली
वाटर प्रूफ बिल्डिंग
इण्डिया में बनी
सागर तल में
जो थी विष्णु भगवान का
सरकारी रेजीडेन्स
बिल्डिंग का नाम था-
शेषनाग!
शेषनाग समुद्र में चले गए
विशेष नाग
धरती पर ही रह गए
हम उन्हीं के हाथों छले गए

संसार के पहले पत्रकार
नारदजी हुए
किसी भी सत्ता-व्यवस्था से
नहीं डरते थे
तीनों लोकों की सनसनीखेज
रिपोर्टिंग करते थे

सृष्टि के प्रथम कमेन्ट्रेटर
संजय हुए
जिन्होंने नया इतिहास बनाया
महाभारत के युद्ध का
आँखों देखा हाल
अंधे धृतराष्ट्र को
टी.वी. पर देख कर
उन्होंने ही सुनाया

दुनिया में
दादागीरी का आविष्कार
भारत ने ही तो किया यार!
अति प्राचीनकाल में
भारत के शनीचर भगवान ने
तीनों लोकों में
इतना आतंक मचाया
कि हफ्ता वसूली का रिवाज
उनके भक्तों ने ही चलाया
आज भी हर शनिवार को
भक्तजन आते हैं
फोटो दिखाते हैं
हफ्ता ले जाते हैं

ये सुनकर वह हड़बड़ाया
गुस्से में बड़बड़ाया
फालतू बात मत बनाओ
सर्जरी में भारत ने कोई
आविष्कार किया हो तो बताओ
मैं बोला-दोस्त!
संसार को तो
सर्जरी का कॉन्सेप्ट ही
इण्डिया ने दिया था
तू ही बता
गणेशजी का ऑपरेशन
क्या तेरे बाप ने किया था?

तुझे नहीं होगा ध्यान
पहले सर्जन तो थे
शंकर भगवान
सारी दुनिया हो गई फेन
क्या खूब सर्जरी की
हाथी का माथा
और आदमी का ब्रेन
ब्रेन भी सबसे तेज
इसीलिए आज तक है उनका
एवरग्रीन क्रेज

मेरी बात सुन कर वह भन्नाया
तुरन्त वहाँ से
चलता-फिरता नजर आया
तब से उसको ही नहीं
सारी दुनिया को ध्यान है
दुनिया में मुल्क
चाहे जितने भी हों
पर उन सब में
मेरा भारत महान है!

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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