Friday, November 20, 2015

गीत : मोक्ष पथ

जितने घाव दिए हैं तुमने, वे मैंने इसलिए सहेजे ।
नयन नीर से पीड़ाओं की औषधियाँ तैयार करूँगा ।।
    मैं तो ऐसा घर हूँ जिसमें
        मात्र वेदनाएँ रहती हैं
    निकली जो नयनों से नदियाँ
        पहले वे भीतर बहती हैं
जितने घाव लिए हैं तुमने, वे सब वंशवृद्धि में रत हैं
घावों की इस वंशबेल का सींच-सींच सत्कार करूँगा ।।    
    हो सकता है पूर्वजन्म में
         मैंने कुछ पीड़ाएँ दी हों
    सम्भव है वे पुनर्भरण में
        तुमने मुझे समर्पित की हों
जितने घाव दिए हैं तुमने, वे उस ऋण का चुकतारा हैं
पाउँगा-जीऊँगा इनको, आगे नहीं उधार करूँगा ।।
             जीवन खाताबही सरीखा
                  लेनदेन सारे हैं अंकित
             सौदा कोई नया न करलूँ
                  सोच-सोचकर हूँ आतंकित
जितने घाव दिए हैं तुमने, सहनशक्ति को परख रहे वे
हँसकर सहन करूँगा लेकिन आगे नहीं उधार करूँगा ।।
    किसे पता है इस दुनिया में
        कितनी बार और आना है ?
    आए तो भी क्या होंगे हम
        यह रहस्य किसने जाना है ?
जितने घाव दिए हैं तुमने, वे सब हैं अनमोल धरोहर
भीतर-भीतर ही दहकूँगा, व्यक्त किन्तु आभार करूँगा ।
    मेरे पास पुष्प हैं केवल
        तुम चाहे सारे ले जाओ
    मैं न कभी उल्हाने दूँगा
        चाहे प्रतिपल शूल चुभाओ
जितने घाव दिए हैं तुमने ,वे सबके सब हरे-हरे हैं
प्रायश्चित के पावन पथ का , मैं इनसे शृंगार करूंगा ।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
ईमेल : kavidube@gmail.com

Thursday, November 19, 2015

गीत : देह...

जो भी कहना है वो कहदो, फिर न ये अवसर मिलेगा
जा रहा हूँ दूर इतना, मिल न पाऊँगा बिछुड़कर

चिर विदाई के परम पावन क्षणों में
     तोड़कर संकोच खुलकर कह रहा हूँ
देखना चाहा नहीं तुमने कभी भी
      मैं तुम्हारे ही हृदय में रह रहा हूँ

भूल जाओ आज नयनों को मुझे मन से निहारो
चित्र ऐसा हूँ पुन: जो बन न पाएगा बिगड़कर

पूछते हो क्या है जीवन तो समझ लो
     जल पे उभरे बुलबुले जैसी कथा है
मृत्यु के पश्चात जीने की ललक में
      मात्र पश्चाताप से उपजी व्यथा है

स्वयं से संवाद करते तो इसे तुम यों समझ पाते
रसवन्त होता ही नहीं है फल पुन: जैसे निचुड़कर

मोह ने अन्धा किया, लालच ने बहरा
मद कभी आहत हुआ तो क्रोध आया
काम कुण्डली मारकर बैठा है मन में
स्वार्थ ने मस्तिष्क को पागल बनाया

उम्र की अनमोल पूँजी घट रही प्रतिपल समझना
देह! ये उद्यान फिर न लहलहाएगा उजड़कर

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सम्पर्क : 0141-2757575
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Wednesday, November 18, 2015

गीत : दिवगंत पिता के प्रति

यह प्रलय सी खिन्नता रोती नहीं गाती नहीं है
भूल तो पाया नहीं पर याद भी आती नहीं है ।।

      शुष्क-सोयी चेतना चंचल बहुत है
    वेदना के प्राण में हलचल बहुत है
      अब नदी भी रेत की ही पर्त है पर
    रेत के नीचे अभी भी जल बहुत है
यह सघन जलराशि लेकिन सिन्धु तक जाती नहीं है
भूल तो पाया नहीं पर याद भी आती नहीं है ।।

      उस समूचे दृश्य से मैं डर गया था
          मन तुम्हारे साथ में ही मर गया था
      एक भी आँसू न निकला आँख से पर
          उर समूचा आँसुओं से भर गया था
यह प्रबल संवेदना भी मोह बरसाती नहीं है
भूल तो पाया नहीं पर याद भी आती नहीं है

     साथ में फिर से तुम्हारे मैं खिलुंगा
    यह अटल व्रत है न मैं इससे टलुंगा
      मेघ ज्यों मिलते परस्पर हैं गगन में
      मैं कभी तुमसे पुन: आकर मिलुंगा
कड़कडाती दामिनी मुझको डरा पाती नहीं है
भूल तो पाया नहीं पर याद भी आती नहीं है ।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सम्पर्क : 0141-2757575
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Monday, November 16, 2015

काल-चिंतन

कौन जानता है जीवन के अगले पल में क्या होना है ?
बुझते-बुझते कई जल गए, कई बुझ गए जलते-जलते ।।
    समझो तो अपने जीवन में
        आने वाला पल कैसा है ?
    जिसमें घुप्प अँधेरा केवल
        ऐसी एक गुफा जैसा है!
उसी गुफा के भीतर जाकर मैंने बार- बार देखा है
रुकते-रुकते कई चल पड़े, कई रुक गए चलते-चलते ।।
    जग में आए और गए सब
        जब-जब जैसा जिसका क्रम था
    कई लोग ऐसे भी देखे
        जिन्हें सूर्य होने का भ्रम था
तम के सम्मुख समरांगण में उदय-अस्त का खेल निराला
उगते-उगते कई ढल गए, कई उग गए ढलते-ढलते ।।
    बिना चले कुछ आगे निकले
        कुछ दौड़े पर हमसे पिछड़े
    कुछ सहयात्री साथ चले तो
        कुछ यायावर असमय बिछुड़े
सम्बन्धों के इस अरण्य में, पृथक-पृथक प्रारब्ध सभी का
भाते-भाते कई खल गए, कई भा गए खलते-खलते ।।
    सपने सा संसार सलौना
        जीने का रोमांच सघन है
    पर भविष्य से अनुमानों की
        जैसे जन्मजात अनबन है
हर रहस्य के सिंहद्वार पर, लटके हुए नियति के ताले
खुलते-खुलते कई छल गए, कई खुल गए छलते-छलते।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
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Saturday, November 14, 2015

सृष्टि चक्र

पेड़ से पत्ते पुराने झड़ रहे हैं
    कोंपलों के मुस्कुराने का समय है ।

देखिए तो वृक्ष की इस सम्पदा को
       जो हरे थे वे सभी पीले पड़े हैं
ज्यों नई सम्भावनाओं से सहमकर
     आज नतमस्तक हुए अनुभव खड़े हैं

नियति की गति में छिपा विध्वंश है तो
     नीड़ फिर नूतन बनाने का समय है

वे स्वत: ही टूटकर अब गिर गए हैं
       जिनको आँधी तक कभी न तोड़ पाई
फूल-फल-पत्ते जो बिछुड़े हैं शाख से तो
         शक्ति कोई भी पुन: न जोड़ पाई

कूकती कोयल मचलकर कह रही है
      सृजन के नवगीत गाने का समय है

पल्लवित-पुष्पित स्वत: फिर पेड़ होगा
       फिर इन्हीं सब टहनियों पर फल सजेंगे
फल जो मिट्टी में मिले थे, बीज बनकर
       रूप वे भी वृक्ष का धारण करेंगे

हर गमन की ओट में फिर आगमन है
        मृत्यु के उस पार जाने का समय है

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Saturday, October 24, 2015

मेरा भारत महान

जरूरत से ज्यादा विकसित
देश के वासी ने मुझसे पूछा-
अगर आपका भारत महान है
तब संसार के
इतने सारे आविष्कारों में
उसका क्या योगदान है?

मैंने कहा-यार!
संसार की पहली
फायर प्रूफ लेडी
इण्डिया में पैदा हुई थी
नाम था- होलिका
आग में जलती ही नहीं थी
इसलिए उस जमाने में
फायर ब्रिगेड चलती ही नहीं थी

यह तो हिरण्यकश्यप ने
प्रहलाद को मारने का
षड्यंत्र किया
इसलिए भगवान ने
उसकी बॉडी में
शॉर्ट सर्किट कर दिया
भगवान की
तरकीब चल गई
होलिका जल गई

संसार की पहली
वाटर प्रूफ बिल्डिंग
इण्डिया में बनी
सागर तल में
जो थी विष्णु भगवान का
सरकारी रेजीडेन्स
बिल्डिंग का नाम था-
शेषनाग!
शेषनाग समुद्र में चले गए
विशेष नाग
धरती पर ही रह गए
हम उन्हीं के हाथों छले गए

संसार के पहले पत्रकार
नारदजी हुए
किसी भी सत्ता-व्यवस्था से
नहीं डरते थे
तीनों लोकों की सनसनीखेज
रिपोर्टिंग करते थे

सृष्टि के प्रथम कमेन्ट्रेटर
संजय हुए
जिन्होंने नया इतिहास बनाया
महाभारत के युद्ध का
आँखों देखा हाल
अंधे धृतराष्ट्र को
टी.वी. पर देख कर
उन्होंने ही सुनाया

दुनिया में
दादागीरी का आविष्कार
भारत ने ही तो किया यार!
अति प्राचीनकाल में
भारत के शनीचर भगवान ने
तीनों लोकों में
इतना आतंक मचाया
कि हफ्ता वसूली का रिवाज
उनके भक्तों ने ही चलाया
आज भी हर शनिवार को
भक्तजन आते हैं
फोटो दिखाते हैं
हफ्ता ले जाते हैं

ये सुनकर वह हड़बड़ाया
गुस्से में बड़बड़ाया
फालतू बात मत बनाओ
सर्जरी में भारत ने कोई
आविष्कार किया हो तो बताओ
मैं बोला-दोस्त!
संसार को तो
सर्जरी का कॉन्सेप्ट ही
इण्डिया ने दिया था
तू ही बता
गणेशजी का ऑपरेशन
क्या तेरे बाप ने किया था?

तुझे नहीं होगा ध्यान
पहले सर्जन तो थे
शंकर भगवान
सारी दुनिया हो गई फेन
क्या खूब सर्जरी की
हाथी का माथा
और आदमी का ब्रेन
ब्रेन भी सबसे तेज
इसीलिए आज तक है उनका
एवरग्रीन क्रेज

मेरी बात सुन कर वह भन्नाया
तुरन्त वहाँ से
चलता-फिरता नजर आया
तब से उसको ही नहीं
सारी दुनिया को ध्यान है
दुनिया में मुल्क
चाहे जितने भी हों
पर उन सब में
मेरा भारत महान है!

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
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Thursday, October 22, 2015

जितने घाव दिए हैं तुमने

जितने घाव दिए हैं तुमने, वे मैंने इसलिए सहेजे ।
नयन नीर से पीड़ाओं की औषधियाँ तैयार करूँगा ।।

              मैं तो ऐसा घर हूँ जिसमें
                 मात्र वेदनाएँ रहतीं हैं
             निकली जो नयनों से नदियाँ
                 पहले वे भीतर बहतीं हैं
जितने घाव दिए हैं तुमने, वे सब वंशवृद्धि में रत हैं ।
घावों की इस वंशबेल का सींच - सींच सत्कार करूँगा ।।

              हो सकता है पूर्वजन्म में
                  मैंने कुछ पीड़ाएँ दी हों
              सम्भव है वे पुनर्भरण में
                 तुमने मुझे समर्पित कीं हों
जितने घाव दिए हैं तुमने, वे उस ऋण का चुकतारा हैं
पाउँगा - जीउँगा इसको, आगे नहीं उधार करूँगा ।।

             जीवन खाता बही सरीखा
                  लेन - देन सारे हैं अंकित
             सौदा कोई नया न कर लूँ 
                  सोच - सोचकर हूँ आतंकित
जितने घाव दिए हैं तुमने, सहनशक्ति को परख रहे वे।
हँसकर सहन करुँगा लेकिन नया नहीं व्यवहार करूँगा ।।

             किसे पता है इस दुनिया में
                  कितनी बार और आना है
            आए तो भी क्या होंगे हम
                  यह रहस्य किसने जाना है
जितने घाव दिए हैं तुमने, वे जैसे अनमोल धरोहर।
भीतर-भीतर ही चीखूँगा, व्यक्त किन्तु आभार करूँगा ।।

            मेरे पास पुष्प हैं केवल
               तुम चाहे सारे ले जाओ
            मैं ना कभी उल्हाने दूँगा
                चाहे प्रतिपल शूल चुभाओ
जितने घाव दिए हैं तुमने, वे सब अब तक हरे-हरे हैं
प्रायश्चित के पावन पथ का मैं इनसे शृंगार करूँगा ।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
ईमेल : kavidube@gmail.com

Wednesday, October 21, 2015

सब अपनाएँ शाकाहार

मांस नहीं खाएँ, ना ही जीवों को सताएँ
यह सबको बताएँ, सब धर्मों का सार
जैसा खाएँ अन्न, होगा वैसा ही मन
हम सब अपनाएँ शाकाहार

तनिक नहीं शरमाते हो, खुद को सभ्य बताते हो
भोले भाले जीवों को, काट-काट कर खाते हो
यदि जीवों को खाओगे तो, सचमुच पछताओगे
आने वाली नस्लों को, आदमखोर बनाओगे

करते हो कमाल, खाते जीवों को उबाल
फिर ठोकते हो ताल, तुमको धिक्कार
जैसा खाएँ अन्न, होगा वैसा ही मन
हम सब अपनाएँ शाकाहार

कैसे मनुज महान बने, धरती का भगवान बने
जीवों की लाशें खाकर, पेट जो कब्रिस्तान बने
नहीं समझ में आता है, अण्डा रोग बढ़ाता है
तुम न कभी अण्डे खाते, अण्डा तुमको खाता है

सण्डे हो या मण्डे, तुम कभी न खाओ अण्डे
सब छोड़ हथकण्डे, करो इसपे विचार
जैसा खाएँ अन्न, होगा वैसा ही मन
हम सब अपनाएँ शाकाहार

माने चाहे ना माने, सच्चाई को पहचाने
मानवता के माथे पर, हैं कलंक बूचडख़ाने
जितना चाहो धर्म करो, सारे ही शुभ कर्म करो
पशुओं की बलि चढ़ाते हो, इंसानों कुछ शर्म करो

थोड़ी भक्ति भी बढ़ाओ, थोड़ी शक्ति भी जुटाओ
अपनी ही बलि चढ़ाओ, तब माने संसार
जैसा खाएँ अन्न, होगा वैसा ही मन
हम सब अपनाएँ शाकाहार

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Tuesday, October 20, 2015

गीत

कौन जानता है जीवन के अगले पल में क्या होना है ?
बुझते-बुझते कई जल गए, कई बुझ गए जलते- जलते ।।

    समझो तो अपने जीवन में
        आने वाला पल कैसा है ?
    जिसमें घुप्प अँधेरा केवल
        ऐसी एक गुफा जैसा है !
उसी गुफा के भीतर जाकर  मैंने बार- बार देखा है
रुकते-रुकते कई चल गए, कई रुक गए चलते- चलते ।।

    जग में आए और गए सब
        जब भी जैसा जिनका क्रम था
    कई लोग ऐसे भी देखे
        जिन्हें सूर्य होने का भ्रम था
तम के सम्मुख समरांगण में उदय-अस्त का खेल निराला
उगते-उगते कई ढल गए, कई उग गए ढलते- ढलते ।।

    कुछ यायावर आगे निकले
        कुछ यायावर हमसे पिछड़े
    कुछ यायावर साथ चले तो
        कुछ यायावर असमय बिछुड़े
सम्बन्धों के इस अरण्य में ऐसा भी होता आया है
भाते-भाते कई खल गए, कई भा गए खलते-खलते ।।

    सपने-सा संसार सलोना
        जीने का रोमांच सघन है
    पर भविष्य से अनुमानों की
        जैसे जन्मजात अनबन है
हर रहस्य के सिंहद्वार पर लटके हुए नियति के ताले
खुलते-खुलते कई छल गए, कई खुल गए छलते- छलते ।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
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Monday, October 19, 2015

गीत

पेड़ से पत्ते पुराने झड़ रहे हैं
    कोंपलों के मुस्कुराने का समय है।

देखिए तो वृक्ष की इस सम्पदा को
       जो हरे थे वे सभी पीले पड़े हैं
फिर नई सम्भावनाओं से सहमकर
     आज नतमस्तक हुए अनुभव खड़े हैं

नियति की गति में छिपा विध्वंश है तो
     नीड़ फिर नूतन बनाने का समय है।

वे स्वत: ही टूटकर अब गिर गए हैं
       जिनको आँधी तक कभी न तोड़ पाईं
फूल-फल-पत्ते जो बिछुड़े शाख से तो
         शक्ति कोई भी उन्हें न जोड़ पाई

कूकती कोयल मचलकर कह रही है
      सृजन के नवगीत गाने का समय है।

पल्लवित-पुष्पित स्वत: फिर पेड़ होगा
       फिर इन्हीं सब टहनियों पर फल सजेंगे
फल जो मिट्टी में मिले थे बीज बनकर
       रूप वे भी वृक्ष का धारण करेंगे

 हर गमन की ओट में फिर आगमन है
        मृत्यु से उस पार जाने का समय है

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सम्पर्क : 0141-2757575
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Saturday, October 17, 2015

दुबेजी के दोहे

तन के इस कुरुक्षेत्र में,
              मन अर्जुन है जान ।
गोविन्द ही हैं आत्मा,
          यह भी गीता-ज्ञान ।।1।।

सुखी रहो आनन्द में,
               जीओ बरस हजार ।
तुम ऐसे फूलो-फलो
                जैसे भ्रष्टाचार ।। 2।।

दीवारों के कान हैं
             पूरा सच यों जान ।
कान संग दीवार में
      चुगलीखोर जुबान ।।4।।

पत्नी के मन में मिलीं,
              दो इच्छाएँ खास ।
बेटा श्रवण कुमार हो,
         पति हो तुलसीदास ।। 3 ।।

यह सच्चाई जानकर,
            आज गये सब काँप ।
कौआ काटे झूठ पर,
      सत्य कहो तो साँप ।।5 ।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सम्पर्क : 0141-2757575
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Friday, October 16, 2015

महिमा अपम्पार प्रिये!

तेरे मेरे प्यार की है ये महिमा अपरम्पार प्रिये !
हम दोनों अनभिज्ञ दिखे पर जान गया संसार प्रिये !

चोरी चोरी चुपके चुपके,
    तुम भी चहक रहे हो क्या ?
मैं तो महक रहा हूँ प्रतिपल,
    तुम भी महक रहे हो क्या ?

मन के कोमल भावों का है यह पावन विस्तार प्रिये !
हम दोनों अनभिज्ञ दिखे पर जान गया संसार प्रिये !

मैंने रात सिसकते काटी,
    तुम भी रोए-रोए हो
मैं दिन में सोया-सोया सा,
    तुम भी खोए-खोए हो

जग के सारे अनुमानों का, ठोस यही आधार प्रिये !
हम दोनों अनभिज्ञ दिखे पर जान गया संसार प्रिये !

जो भी घटित हुआ जीवन में,
    सब कुछ अपने आप हुआ
मैं क्या जानूं प्रीत में मुझसे,
    पुण्य हुआ या पाप हुआ

मेरी हार जीत जैसी है और जीत भी हार प्रिये !
हम दोनों अनभिज्ञ दिखे पर जान गया संसार प्रिये !

जो गुलाब है महकेगा ही,
    कोई टोक नहीं सकता
सूरज है तो चमकेगा ही,
    कोई रोक नहीं सकता

इसे छिपाने की हर कोशिश है बिलकुल बेकार प्रिये!
हम दोनों अनभिज्ञ दिखे पर जान गया संसार प्रिये !


-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सम्पर्क : 0141-2757575
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Thursday, October 15, 2015

जय फोकट के माल की

जानबूझकर ढीली छोड़ी कुछ गाँठें हर जाल की ।
हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की ।।

    वोट हमें देना प्यारे!
        हम खुशहाली ला देंगे
    दूध- दही की भारत में
        नदियाँ पुन: बहा देंगे
मुर्गी जन्म भैंस को देगी, करो व्यवस्था ग्वाल की।
हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की ।।

    कहते हैं देखो हमने
        कीर्तिमान हैं सभी छुए
    ऐसे काम किए जैसे
        अब से पहले नहीं हुए
अन्धे ने तस्वीर बना दी है गंजे के बाल की।
हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की ।

    कैसे - कैसे सपने हैं
        कैसी मार रहे शेखी
    हमको लगता है जैसे
        घोड़ी की देखादेखी                
चली मेंडकी के पाँवों में फिर से खुजली नाल की।
हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की।।

    वो मौसम बेदर्दी था
        और ये भी बेदर्दी है
    खादी कंधे पर लादे
        भटक रही फिर वर्दी है
रिश्वतखोरी कथा है जैसे विक्रम और बेताल की।
हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की।।

    बिना बात ही उलझे हैं
        लेना एक न देना दो ।
    सिर्फ समय की बर्बादी
        वह चाहे कितनी भी हो
सारे होली खेल रहे हैं गोबर सनी गुलाल की।
हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की ।।

    अपनी गलती के कारण
        हम ही हक्के-बक्के हैं
    उनको जिम्मेदारी दी
        जो खुद चोर-उचक्के हैं
कुर्सी को अब समझ रहे वे जायदाद ससुराल की
हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की ।।






-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Monday, October 12, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 23


मंत्री की रूह

ठग

दिया हुक्म यमराज ने, जाकर के तत्काल।
उस मंत्री की रूह को, ले आ अभी निकाल।।
फैलाकर निज जाल, खबर झट देना मुझको।
वह ठग-पक्का घाघ, वहीं ना रख ले तुझको।।

चिन्ता

मुख पर उस यमदूत के, थी चिन्ता की रेख।
मंत्री जी की देह में, रूह नहीं; यह देख।।
बदल गया विधि लेख, सोचता मन में ऐसे।
मुझे यहाँ बिन रूह मिला यह जीवित कैसे?

चकरघिन्न

सोच-सोच करके थका, काम न आया ज्ञान।
डरा हुआ यमदूत भी, मन में था हैरान।।
विधि का ध्वस्त विधान, फर्ज किस तरह निभाऊँ।
मिली नहीं जब रूह साथ में क्या ले जाऊँ?

सेम्पल

नाम वह; चेहरा वही, रंग-रूप-आकार।
बोल-चाल अन्दाज सब, सेम्पल के अनुसार।।
देश, गाँव, परिवार, सही सब दिया दिखाई।
कहाँ गई है रूह बात यह समझ न आई?

घोषित शैतान

ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी, तेजस्वी, गुणखान।
महा चार सौ बीस है, या घोषित शैतान।।
क्या इसकी पहचान, रूप चाहे जो धर ले।
ऐसा ना हो प्राण आज ये मेरे हर ले।।

क्लोन

इसने तो बनवा लिया, शायद अपना क्लोन।
सिम नम्बर तो एक पर, चला रहा दो फोन।।
खतरनाक है टोन, कहीं ऐसा ना कर ले।
मेरी रूह निकाल खुद की देह में धर ले।

स्टेंड

बढ़ती जा रही समस्या, दिखता कहीं न एंड।
आज मुझे यमराज जी, कर देंगे सस्पेंड।।
लेऊँ क्या मैं स्टेंड? जुगत किस तरह भिड़ाऊँ।
रूह यहीं पर छोड़, वहाँ बॉडी ले जाऊँ?

मार्गदर्शन

सेल फोन पर समस्या, बता रहा यमदूत।
बोले तब यमराज यों, मन को रख मजबूत।।
ताकत झोंक अकूत, अरे भोले सहयोगी!
मंत्री की है रूह छिपी कुर्सी में होगी।

बीज

कुर्सी में यमदूत को, मिली अनोखी चीज।
दिखा झलकता उसी में, मंत्री जी का बीज।।
निखरी हुई तमीज, नेह सबका पाती थी।
जाने पर नजदीक खूब बदबू आती थी।।

सरकारी रूह

मंत्री के भी रूह है, इसमें कितनी साँच।
इसीलिए तो लैब में, पड़ी करानी जाँच।।
मिला नतीजा बाँच, सत्य को विस्मय भारी।
आई जाँच रिपोर्ट, रूह है ये सरकारी।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल

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Saturday, October 10, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 22

उत्प्रेरण

नटवरलाल

मेरे प्यारे मित्र ने, किया प्रकट यह भाव।
लड़लो नटवरलाल तुम, अब की बार चुनाव।।
पार गई यदि नाव, तुम्हारा भाग्य खिलेगा।
तुम-सा झाँसेबाज दूसरा कहाँ मिलेगा?

सुझाव

घरवाली के प्रश्न में, शामिल हुआ सुझाव।
आप क्यों नहीं लड़ रहे, अब की बार चुनाव।।
दो मुँछों पर ताव, बहुत चर्चाएँ होंगी।
राजनीति में खूब चलेगा तुम-सा ढोंगी।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
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Friday, October 9, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 21

चुनाव परिणाम

सुन्दरी

जो थी अनिन्द्य सुन्दरी, हारी यों श्रीमान।
भारी संख्या में किया, अन्धों ने मतदान।।
मिटे सभी अरमान, काम ना आए फन्दे!
कुछ आँखों से और कई थे अक्ल से अन्धे!!

मतगणना

मतगणना के बीच में, नेता दीना रोय।
जनाक्रोश के सामने, टिक पाया ना कोय।।
बोय, वही फल होय, कह रहा रोता-रोता।
मतदाता का मूड भाँपना मुश्किल होता।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Thursday, October 8, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 20

मुद्दा

पापाचार

बिजली-पानी औ' सड़क, आरक्षण-रोजगार।
हमें कहा तुम तो करो, इन मुद्दों से प्यार।।
कैसा पापाचार! टिकट बाँटा अपनों को।
हम क्योंकर साकार करें उनके सपनों को?
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
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Wednesday, October 7, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 19

नेता

घोषणा-पत्र

कितने वादे कर चुके, हो नेताजी आप!
रहम करो हम पर जरा, हे नव युग-संताप!
उगल दिया बेमाप, झूठ भी इतना सारा!
लगे सरासर गप्प घोषणा-पत्र तुम्हारा।।

जुगाली

राजनीति में आ गए, जाने कैसे लोग।
जैसे-जैसे लोग हैं, वैसे-वैसे रोग।।
मकसद केवल भोग, सत्य की करें जुगाली।
गुस्सा, प्यार, चरित्र, वायदे सारे जाली।।

औकात

कुछ गुण्डे करने लगे, आपस में यह बात।
नेताओं के सामने, क्या अपनी औकात।
शातिर इनकी जात, नहीं है फिर भी धब्बा।
राजनीति में रहे कई अपने भी अब्बा।।

कूट

लूट मचाई आपने, डाल-डाल कर फूट।
सब पर तो पाबन्दियाँ, चेलों को हर छूट।।
नीति आपकी कूट, नहीं गुण्डों का टोटा।
जो न निभाए साथ उसी के मारो सोटा।।

पुकार

नेता आवत देखकर जनता करे पुकार।
इसके काटे का नहीं है कोई उपचार।
कोई भी हथियार हमें अब बचा न पाए।
ये काटे तो साँप तड़प करके मर जाए।।

बूथ-लुटेरा

गुण्डा खड़ा चुनाव में, लिए राइफल हाथ।
करे बूथ जो कैप्चर, चले हमारे साथ।।
मानो मेरी बात, हाथ में ले लो सोटा।
जो भी करे विरोध घुमा दो उस पर घोटा।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Tuesday, October 6, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 18


टिकट-दौड़

वरदान

टिकट मुझे मिल जाय बस, दो ऐसा वरदान।
इस पर यों कहने लगे मुस्काकर भगवान।।
जा रे जा नादान! अभी झट फल पाएगा।।
बस का टिकट खरीद फटाफट मिल जाएगा।।

घाव

टिकट ना दे जब पार्टी, लगता गहरा घाव।
नेता जुड़ा जमीन से, कैसे लड़े चुनाव?
करना हो बदलाव, खोल किस्मत के ताले।
यहाँ टिकट पा जाँय जमीं खिसकाने वाले।।

टिकट-बावले

रहे भटकते रात-दिन, टिकट-बावले लोग।
पापड़ बेले बहुत पर, बचा नहीं कुछ योग।।
घातक कुर्सी रोग, व्यर्थ ही धक्के खाए।
बस का टिकट खरीद बावले घर को लाए।

हल्ला

टिकट मुझे दे दीजिए, मैं आऊँगा काम।
शोर मचाने में रहा, मेरा ऊँचा नाम।।
आएँगे परिणाम, रहूँगा नहीं निठल्ला।
असेम्बली में खूब मचाऊँगा मैं हल्ला।।

वंशवादी

भाई-भतीजा-भार्या, नाती-रिश्तेदार।
काबिल ये ही टिकट के, बाकी सब बेकार।।
दिखता बस परिवार, वंशवादी सब चंगे।
इस हमाम में हमें दिखें सारे दल नंगे।।

टिकट मेल

इस्तीफे की मिसाइल, उठा रही तूफान।
जान हाईकमान की, बिदकी संकट जान।।
अटक गया अभियान, भाँप मौसम का खतरा।
टिकट मेल अब लेट, कहीं पटरी से उतरा।।

मलाई

बेटा, पोता, दोहिता, पत्नी या दामाद।
टिकट दिलाते वक्त ये रहे आपको याद।।
हम क्या जाने स्वाद, छाछ जब हमें पिलाई।
वे डलवाएँ वोट मलाई जिनने खाई।।

मचान

ज्ञापन, उग्र-प्रदर्शन, जलते हुए बयान।
इस्तीफों की धमकियाँ, ढहते हुए मचान।।
कहीं नया अभियान, कहीं चिट्ठी तूफानी।
टिकट बाँटिए ठीक छोड़ अपनी मनमानी।।

विचित्र खबर

सीधा सच्चा आदमी, उज्जवल रहा चरित्र।
टिकट मिल गया उसे तो, होगी खबर विचित्र।।
गंध रहित अब इत्र, आज लगता है ऐसा।
टिकट दिलाए जाति; जोर; तिकड़म या पैसा।।
 
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Monday, October 5, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 17


कमाल

वोटिंग की मशीन में, सचमुच बड़ा कमाल।
नीला बटन दबाइये, चिह्न देख तत्काल।।
तोड़ो सबका जाल, बीप बजने पर खिसको।
उसे मिलेगा वोट दिया है तुमने जिसको।।

मतदाता-सूची

छगन पूत है मगन का, रहे समझते आप।
मतदाता सूची कहे, लादू इसका बाप।।
पुण्य हुआ या पाप, करो पड़ताल समूची।
बदल दिया है बाप धन्य मतदाता सूची।।

सट्टा

किसकी होगी जीत या, होगी किसकी हार।
सट्टे के पट्ठे यहाँ, ताल ठोक तैयार।।
खाकर के भी मार, कहे मीठे को खट्टा।
जैसी चाहे वायु बहा सकता है सट्टा।।

नारी

नारी के जब-जब हुए, हैं तेवर विकराल।
नर का उसके सामने, रहा बिगड़ता हाल।।
नहीं गल रही दाल, मुसीबत आई भारी।
वापस ले लो नाम, खड़ी है सम्मुख नारी।।

मूँछ

उलझ गई हर चाल जब, प्रतिद्वंद्वी से जूझ।
मूँछ लगा दी दाँव पर, पंडि़तजी को बूझ।।
रहा नहीं कुछ सूझ, करूँ क्या प्यारे भाई!
लिए उस्तरा नित्य स्वप्न में दिखता नाई।।

मिथ्याचारी

आता है जनतंत्र में, ऐसा भी एक मोड़।
जोड़-तोड़ अरु फोड़ की, लग जाती है होड़।।
दल-निष्ठा सब छोड़, निकलते छल-बलधारी।
जनता जाती हार जीतते मिथ्याचारी।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Sunday, October 4, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 16

चुनावी परिदृश्य

गड़बड़झाला

प्रत्याशी दो आ गए लगती कैसे रोक।
अब क्या करें गणेश जी, दी दोनों ने ढोक।।
सके न उनको टोक, हुआ यों गड़बड़झाला।
राजनीति ने आज धर्म संकट में डाला।।

काँटे की टक्कर

चर्चाओं में व्यक्त यह, करते लोग विचार।
काँटे की टक्कर यहाँ, फिर होगी इस बार।।
घूँसा है तैयार, काट बनने चाँटे की।
काँटों में ही सदा रही टक्कर काँटे की।

रैली-रोग

कहीं पालतू लोग हैं, कहीं फालतू लोग।
दोनों के सहयोग से, फैला रैली-रोग।।
यह भी इक उद्योग, योग हो चाहे जो भी।
बुला रहे कर जोड़, सभी सत्ता के लोभी।।

दस्तूर

खड़ा हुआ तो क्या हुआ, पल में उतरा नूर।
वोटर को भाया नहीं, खिसकी कुर्सी दूर।
आवश्यक दस्तूर, हमेशा इसे निभाना।
वोटर के अनुरूप पड़ेगा स्वांग रचाना।।

गंदगी

बढ़ा चुनावी दौर में, मलेरिया का जोर।
सभी दलों की गंदगी, फैल गई चहुँ ओर।।
नहीं ओर या छोर, बड़ी मुश्किल है प्यारे।
भिन-भिन करते काट रहे हैं मच्छर सारे।।

नए दलाल

वोटर तो खामोश है, लीडर सब वाचाल।
बात-बात में खींचते, हैं शब्दों की खाल।।
ये हैं नए दलाल, जाल ऐसा फैलाते।
ज्ञानी-ध्यानी लोग सदा जिसमें फँस जाते।।

चरित्र हार

बना पटाखा फुलझड़ी, चकरी बनी अनार।
एक सीट के लिए हैं, सब कितने लाचार।।
चरित्र समूचा हार, रोशनी बनकर छाए।
दूषित करके वायु खूब मन में इतराए।।


-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Saturday, October 3, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 15

जनसंपर्क

वोटर वंदना

माता-दाता, गुरु, पिता, भ्राता, रिश्तेदार।
पाप-निवारक आप हो इस युग के अवतार।।
सच्चे तारणहार, प्रकट कर सकते गुम को।
हे वोटर भगवान! मनाऊँ कैसे तुम को?

टेंशन

पत्नी माँगे वोट नित, जोड़-जोड़ कर हाथ।
ऐसा देना साथ तुम, जीते मेरा नाथ।।
जनम-जनम का साथ, हँसी कारण समझाते।
यह टेंशन कुछ साल रहे जनता के माथे।।

शामिल बाजा

बरसों से जो निरंकुश, रहे भोगते राज।
झोंपडिय़ों के द्वार पर, वोट माँगते आज।।
नहीं किसी को लाज, बजेगा शामिल बाजा।
मतदाता है यहाँ तंत्र का असली राजा।।

फर्क

राम-राम करने गए, जिनके घर हर साल।
वो खुद चलकर आ गए, लगे पूछने हाल।।
लेकर आए माल, फर्क इतना-सा भाई।
अबकी बार चुनाव संग दीवाली आई।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Friday, October 2, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 14


बागी

आशा

पकड़े टीटी भी नहीं, किस्मत का हो योग।
बिना टिकट भी पहुँचते, मंजिल तक कुछ लोग।।
भीषण कुर्सी-रोग, खूब जब आशा जागी।
चढ़े ट्रेन में साथ निर्दली-दागी-बागी।।

फालतू-पालतू

बागी आवत देखकर बोला उम्मीदवार।
जैसे भी हो रोक दो, तुम इसकी रफ्तार।।
जान बचाओ यार, तिकड़में सब अजमाओ।
तजा फालतू जान पालतू उसे बनाओ।।

हार में जीत

केवल एक अनार है, और कई बीमार।
सारे ही बीमार अब, जता रहे अधिकार।।
जीत मिले या हार, नहीं है अन्तर भारी।
टिकट मिले की हार समझिए जीत हमारी।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Thursday, October 1, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 13


आरक्षण

आग

अबकी बार चुनाव है, आरक्षण का खेल।
इस मुद्दे के सामने, बाकी मुद्दे फेल।।
लाठी, गोली, जेल, झुलसना हम देखेंगे।
धधक उठी है आग रोटियां वो सेकेंगे।।

इशारे

कहीं-कहीं मतभेद हैं, और कहीं मनभेद।
लोकतंत्र की नाव में, पड़े दिखाई छेद।।
नहीं किसी को खेद, अभी हैं दूर किनारे।
डूब जाएगी नाव, भँवर के समझ इशारे।।

चक्रव्यूह

प्रश्न विकट है सामने, सभी धनुर्धर मौन।
आरक्षण का चक्रव्यूह, तोड़ेगा अब कौन?
सभी अक्ल में पौन, द्रोण रचकर मुस्काए।
चकित-थकित अभिमन्यु याद अर्जुन की आए।।

आरक्षण

रेलों ने सबको दिया, अति दुर्लभ यह ज्ञान।
आरक्षण यदि नहीं मिला, सफर नहीं आसान?
सोओ चादर तान, नहीं अब धक्के खाओ।
जनरल बोगी छोड़ बर्थ आरक्षित पाओ।।


-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Wednesday, September 30, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 12

चुनाव घोषणा

दंगल

दंगल शुरू चुनाव का, जंगल में है जोश।
शेर-भेडि़ए कह रहे, कर-कर के रण-घोष।।
माफ कराते दोष, हिरण को कहते भैय्या।
चाचा है खरगोश भेड़ लगती है मैय्या।।

मतचट्टा

रहा जमाल्या सोचता, सुनकर यह आवाज।
मुझे जमालुद्दीन जी, कौन कह रहा आज।
बदल गया अन्दाज, समझ इतना ही पाया।
घोषित हुए चुनाव, द्वार मतचट्टा आया।।

उपजा ज्ञान

आया निकट चुनाव तो, उपजा हमको ज्ञान।
बढ़-चढ़ सब देने लगे, गुण्डे को सम्मान।।
होना मत हैरान, जान पर तन सकता है।
अन्टा करके टिकट विधायक बन सकता है।

वंशावली

भूले यदि वंशावली, कीजे एक उपाय।
इक चुनाव लड़ लीजिए, है यह उत्तम राय।।
देंगे सब बतलाय, दमड़ी एक ना लेंगे।
पुरखों का इतिहास विरोधी छपवा देंगे।।
सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Tuesday, September 29, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 11

रिश्वत कांड

बाकी कपड़े

रिश्वत वाली टेप से, सभी रह गए दंग।
कैसे-कैसे दिख रहे नेताओं के रंग।।
बदल चुके सब ढंग, बड़े तगड़े हैं लफड़े।
अभी फटेंगे और देखिए बाकी कपड़े।।

मलाल

रिश्वत वाली बात पर, मुझको बहुत मलाल।
मेरे रहते खा गया, यही अकेला माल।।
गल भी जाती दाल, बाँटकर के जो खाता।
धरती पर बैकुण्ठ सरीखे सब सुख पाता।।

धन-स्नान

सुबह-सुबह कहने लगा, भ्रष्टाचार स्वमेव।
एक तरफ जोगी खड़े, एक तरफ हैं देव।।
माल झपट सब लेव, हाल दोनों के चंगे।
नित्य करें धन-स्नान बोलकर हर-हर गंगे।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)


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Monday, September 28, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 10

तीसरा मोर्चा


थर्ड-फोर्स

रोटी के मिस जूझते, दो बन्दर जब हाय।
पड़कर उनके बीच में, कर देती जो न्याय।।
पूरी रोटी खाय, उड़ाओ चाहे खिल्ली।
राजनीति में थर्ड फोर्स होती वह बिल्ली।।

जुगाड़ू

दो पाटों के बीच में, साबुत जो रह जाय।
माथे देख चुनाव को बदले अपनी राय।।
कभी नहीं शर्माय, खिलाड़ी परम जुगाडू।
होते ऐसे लोग हमेशा गणित बिगाडू।।

दागी-बागी

अपने दल से आप जो, खा बैठे हो खार।
स्वागत में तत्पर खड़ा, थर्ड फ्रन्ट तैयार।।
समझो सच्चा सार, सुनो सब दागी-बागी।
आओ जिस-जिसने अपनी निष्ठाएँ त्यागी।।

जादूगर

चाहे जिसकी जीत हो, चाहे जिसकी हार।
हमें हमेशा चाहिए, झण्डे वाली कार।
हम जादूगर यार, हमेशा लोकतंत्र के।।
चमत्कार हर रोज करेंगे बिना मंत्र के।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)




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Sunday, September 27, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 9

फंडिंग

वित्त

सबसे ज्यादा कीमती, है चुनाव में वित्त।
पास नहीं हो वित्त तो, चारों खाने चित्त।।
नहीं नियोजित हित्त, टिकट कैसे वह पाए।
बिना वित्त के नित्त, सड़क पर धक्के खाए।।

एजेण्ट

सबको चन्दा बाँटना, अपना पहला काम।
यहाँ आम के आम हैं, गुठली तक के दाम।।
खूब कमाएँ नाम, दाम ले जाएँ सारे।
जीते-हारे लोग सभी एजेण्ट हमारे।।

निवेश

चन्दा दिया चुनाव में, यह भी एक निवेश।
दूर करेगा कल यही, अपने सारे क्लेश।।
समझ सत्य सन्देश, अभी जाकर खाने दे।
मैं लूटूँगा देश विधायक बन जाने दे।।

अलाव

धन कुबेर कहने लगे, आया निकट चुनाव।
सेकेंगे हम रोटियां, फिर से जले अलाव।।
खूब बढ़ाओ भाव मगर बनना मत अन्धा।
दुगुना करें वसूल यही है अपना धन्धा।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

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Saturday, September 26, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 8

शराब


नशा-दशा
वोटर घर में बैठकर, सबकी मदिरा लेय।
जैसा जिसका ब्राण्ड है, वैसा ही फल देय।।
अतिमादक यह पेय, मजा खासा आएगा।
रहा जो साथ नशा, दशा बिगड़ी पाएगा।।

मतिअन्ध
कर शराब से आचमन, बारम्बार सराहि।
मतदाता मतिअन्ध तू, वोट बेचता काहि।।
फिर पीछे पछताहि, समझ ले वचन हमारे।
यहाँ बेचकर वोट सदा मतदाता हारे।।

मौका
सब ही मौका माँगते, पिला-पिला कर पेय।
जो भी मौका पा गया, वो ही धोखा देय।।
धन जिनका पाथेय, नहीं देंगे वो जीने।
पी ली अभी शराब पड़ेंगे आँसू पीने।।

मदिरा-राज
बदतमीज सब नालियाँ, नदियाँ ओढ़ें लाज।
कुएँ सूख सारे गए, सागर भी मोहताज।।
मदिरा करती राज, बनाकर हमें पियक्कड़।
भड़का करके प्यास बने वो लालबुझक्कड़।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

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Friday, September 25, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 7

मंत्री


अनुमान

देखा पुलिस जमावड़ा, हुआ हमें यह भान।
आतंकी के विरुद्ध है, यह कोई अभियान।।
गलत हुआ अनुमान, तभी बोले संत्री जी।
आतंकी क्या चीज, आ रहे हैं मंत्री जी।।

धूल

धूल उड़ाती बढ़ गई, मंत्री जी की कार।
धूल उड़ाने को हुआ, है शायद अवतार।।
बहुत तेज रफ्तार, महकमें कहते भाई।
मंत्री बन सरकार! आपने धूल उड़ाई।।

खादी

काले-काले काम हैं, जनसेवा की ओट।
राजनीति में आ गई, यह गरिमामय खोट।।
कच्ची जिनकी लँगोट, उन्हें पूरी आजादी।
छिप जाएँगे दाग पहनते रहिए खादी।।

स्थान

रखें न पाँव जमीन पर, मंत्री मालामाल।
जनता ने पहुँचा दिया, इसीलिए पाताल।।
करके यों बदहाल, साफ कर दिया इशारा।
पुरातत्व में सदा सुरक्षित स्थान तुम्हारा।।


-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

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Thursday, September 24, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 6

मतदाता की नियति

कुआँ-खाई

तुम ही कहो चुनाव में, सौंपें किसको डोर।
साँपनाथ इस ओर हैं, नागनाथ उस ओर।।
गुण्डे! डाकू! चोर! सभी दिखते हरजाई।
इधर पड़ो तो कुआँ, उधर है गहरी खाई।।

माल

माल धरे सो आज धर, आज धरे सो अब्ब।
कल तो मत पड़ जाएँगे, बहुरि धरेगो कब्ब।।
समझ चुके हैं सब्ब, ये लक्षण देखा-भाला।
फिर चुनाव के बाद कौन है आने वाला?

तकदीर

वोटर की तकदीर में, जाने क्या है खोट।
देता जिसको वोट है, वही लगाता चोट।।
अभी दिखाकर नोट, कभी विस्फोट कराता।
गोट पीटकर सदा ओट में वह छिप जाता।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

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Thursday, April 9, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 5

भ्रष्टाचार

आशीर्वाद

सुखी रहो आनन्द में, जीओ बरस हजार।
तुम ऐसे फूलो-फलो, जैसे भ्रष्टाचार।।
है लिहाज बेकार, सूरमा तक पिट जाए।
जो तुम्हें मिटाने बढ़े स्वयं ही वह मिट जाए।।

सड़क

काम बड़े हैं आपके, जनता समझ न पाय।
सड़क बड़ी मजबूत थी, लेगइ पवन उड़ाय।।
कहते सब मुस्काय, ले गए चूहे बिल में।
धरती पर मत खोज सड़क है उस फाइल में।।

सरकारी निर्माण

पुलिया को मत छेडि़ए, नाजुक याके अंग।
कदम एक जो धर दिया, टूट पड़ेंगे संग।।
बदला-बदला ढंग, यहाँ से जल्दी खिसको।
सरकारी निर्माण दूर से देखो इसको।।

भ्रष्टाचार

आज सुबह कहने लगा, मुझसे भ्रष्टाचार।
नेतागण सब कर चुके, हैं मुझको स्वीकार।।
गफलत में हो यार! लगा देने यों ताने।
किनके बल पर आप चले हो मुझे मिटाने?

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

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कुर्सी तू बड़भागिनी - 4

मीडिया

हेराफेरी

यहाँ ढोल में पोल है, वहाँ पोल में ढोल।
रोल मीडिया का सदा, देता आँखें खोल।।
किनके बिस्तर गोल, समझते लगी न देरी।
बड़े-बड़ों की चाह रही है हेरा-फेरी।।

सम्पदा

देख सम्पदा आपकी, बोल उठे सब लोग।
खूब फला है आपको, राजनीति उद्योग।।
अच्छा अवसर योग, कर रहे वर्कर चर्चा।
प्रत्याशी धनवान खूब करवाओ खर्चा।।

आभार

ईश्वर का आभार जो, कर दीनी बरसात।
वरन विरोधी पूछते, बार-बार यह बात।।
नई-नई सौगात, किस तरह पुलिया टूटी?
उठा अगर यह प्रश्न समझ लो किस्मत फूटी।।

रिमोट

सिस्टम में जनतंत्र के, बहुत बड़ी यह खोट।
टीवी इनके पास है, उनके पास रिमोट।।
खूब खर्च कर नोट, कृपा उनकी पाती है।
टीवी पर तस्वीर सिर्फ वो ही आती है।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल

सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
ईमेल : kavidube@gmail.com

Wednesday, April 8, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 3

पैंतरेबाजी/बयान

चोट

पॉलीथिन में धर दिया, जोड़-जोड़ कर खोट।
पाँच साल तक यों चला, फटा-फटाया नोट।।
चलन बना यों चोट, सभी के उतरे मुखड़े।
जिसे भोगना पड़ा पूछिए उससे दुखड़े।।

मजबूरी

बाद चुनावों के बने, जिसकी भी सरकार।
उसमें घुसने के लिए, हम हर पल तैयार।।
समझो बरखुरदार, हमारी यह मजबूरी।
जनादेश का मान, बढ़ाना बहुत जरूरी।।

मुद्दा

ऐसा मुद्दा ढूँढ लो, मचा सकूँ मैं शोर।
प्रतिद्वंद्वी दिखने लगे, मुझसे ज्यादा चोर।।
संकट है यह घोर, नहीं खुद में अच्छाई।
प्रतिद्वंद्वी में खोज इसलिए रोज बुराई।

श्राद्ध

चमचों को बतला रहे, प्रत्याशी गुणखान।
करते जैसे श्राद्ध में, कौओं का सम्मान।।
बगुले वाला ध्यान, चलन देखा है ऐसा।
होते ही मतदान हाल जैसा था वैसा।।

मोल

मिला नहीं है हमारा, हमको खरीददार।
यों हम बिकने के लिए, हैं कब से तैयार।
करो नहीं तकरार, माल का मोल चुकाओ।
मोल चुकाकर खूब आप सेवाएँ पाओ।।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

मेरी प्रकाशित पुस्तक
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Monday, April 6, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 2

कुर्सी महिमा

कुर्सी वंदना

कुर्सी तू बड़भागिनी, कौन तपस्या कीन।
अफसर-तस्कर-मंतरी, सब तेरे आधीन।।
भैंस बजाए बीन, अगर तुझको पा जाए।
कौआ गाने लगे गधा ज्ञानी कहलाए।।

ताकत रूहानी

बादल में ज्यों नीर है, शब्दों में ज्यों सार।
रोम-रोम में रम गया, त्यों कुर्सी का प्यार।।
कुर्सी में है यार, बड़ी ताकत रूहानी।
भगे बुढ़ापा दूर झलकने लगे जवानी।।

मुण्डन

हरदम कुर्सी राखिए, बिन कुर्सी सब सून।
कुर्सी अपने आप में, हेयर कटिंग सैलून।।
काटो तो ना खून, सभी को रोज निखरना।
कुर्सी पर ही यार! सरल है मुण्डन करना।।

बिन कुर्सी

जबरन झट हथियाइये, बनकर दावेदार।
जब तक कुर्सी नहीं मिले, राजनीति बेकार।
करो नहीं बेगार, आज ही बोलो हल्ला।
कुर्सी के बिन नेता लगता बहुत निठल्ला।।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

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में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल

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Saturday, April 4, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 1

गठबन्धन

जरदा तेरे पास है, चूना मेरे पास।
आजा गठबन्धन करें, स्वाद बनाएँ खास।।
पूरा है अभ्यास, रगड़ करके बाँटेंगे।
खाकर देंगे थूक; थूककर फिर चाटेंगे।।

ठाठ

अन्धे का कन्धा मिला, लँगड़ा हुआ सवार।
खूब ठाठ से चल पड़ी मिली-जुली सरकार।।
उत्तम हैं आसार, उतर न जाना रंगा।
जब तक अपना साथ, हाल तब तक है चंगा।।

कबूतर-बाज

देख रहे हैं हम सभी, राजनीति का खेल।
साँप-नेवले में यहाँ, होता आया मेल।।
सिद्धान्तों का तेल, निकलते हरदम देखा।
तभी कबूतर-बाज सभी कर लेते एका।।

खाज पर ताज

गठबन्धन की आड़ में, ठगबन्धन का राज।
सबने मिलकर लूट ली, लोकतंत्र की लाज।।
रखा खाज पर ताज, अशुद्धि रही मंत्र में।
घुसा वायरस घोर हमारे लोकतंत्र में।।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

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बिखराव जैसी है!

प्रेम की पूरी कथा, अलगाव जैसी है ।
यह समूची व्यवस्था बिखराव जैसी है ।।

इस क्षितिज से उस क्षितिज तक
       और उसके पार आगे
मन हो आरूढ प्रतिपल
        खूब भागे हम अभागे
दौड़ते ही हम रहे पर बढ न पाए
मार्गदर्शी सूचना तक पढ न पाए

जिन्दगी की यात्रा भटकाव जैसी है
यह समूची व्यवस्था बिखराव जैसी है

जन्म से पहले जगत में
     मृत्यु के पश्चात है क्या ?
पूछता हूँ मैं स्वयं से
     इस विषय में ज्ञात है क्या ?
ज्ञान कहलातीं अधूरी सूचनाएँ
आज जो बनवा रही हैं योजनाएँ

स्वप्न की दुनिया जुए के दाव जैसी है
यह समूची व्यवस्था बिखराव जैसी है।

Friday, April 3, 2015

जीवन देवासुर संग्राम

मेरे भीतर ही है रावण
      मेरे भीतर राम
              जीवन देवासुर संग्राम ।

रात अँधेरी उजियारा दिन
रहें नहीं संग्राम किए बिन
       साँझ के पीछे सुबह पड़ी है
            सुबह केपीछे शाम
                  जीवन देवासुर संग्राम

ये विपरीत परस्पर ऐसे
शीत -ऊष्ण होते हैं जैसे
     नित्य युद्धरत हैं दोनों ही
         किए बिना विश्राम
                जीवन देवासुर संग्राम

एक बार बिसराकर अनबन
कर डाला सागर का मंथन
          भोले के हिस्से विष आया
                निकला यह परिणाम
                      जीवन देवासर संग्राम

समझो और स्वयं ही जानो
निज कर्तव्य कर्म पहचानो
       लंका में मन भटके अथवा
            बसे अयोध्या धाम
                   जीवन देवासुर संग्राम

भ्रमित जी रहे सब नर-नारी
बीती उम्र स्वप्न में सारी
         क्या करने आए थे जग में
               करने लगे क्या काम ?
                     जीवन देवासुर संग्राम ।।

Monday, March 30, 2015

सबकी नियति निराली

किसी का बर्तन भरा हुआ है
       किसी का बर्तन खाली
            जग में सबकी नियति निराली ।

भिन्न -भिन्न है नियति सभी की
        हम ऐसे समझाएँ
भिन्न-भिन्न हाथों में हैं जैसे
        भिन्न -भिन्न रेखाएँ

किसी को झूठी पत्तल मिलती
      किसी को सज्जित थाली
            जग में सबकी नियति निराली

अपनी नियति भोगते पत्थर
        ज्यों सरिता में बहते
कहाँ पे जन्मे ,कहाँ पले हम
        आज कहाँ पर रहते !

कहीं अमावस का अँधियारा
     और कहीं दीवाली
            जग में सबकी नियति निराली

मंच,पटकथा, पात्र, दृश्य हैं
        यहाँ सुनिश्चित सारे
अभिनेता, अभिनेत्री, दर्शक
        सब अबोध बेचारे

कोई विस्मय से देखे और
     किसी ने दृष्टि घुमा ली
           जग में सबकी नियति निराली ।