Saturday, October 24, 2015

मेरा भारत महान

जरूरत से ज्यादा विकसित
देश के वासी ने मुझसे पूछा-
अगर आपका भारत महान है
तब संसार के
इतने सारे आविष्कारों में
उसका क्या योगदान है?

मैंने कहा-यार!
संसार की पहली
फायर प्रूफ लेडी
इण्डिया में पैदा हुई थी
नाम था- होलिका
आग में जलती ही नहीं थी
इसलिए उस जमाने में
फायर ब्रिगेड चलती ही नहीं थी

यह तो हिरण्यकश्यप ने
प्रहलाद को मारने का
षड्यंत्र किया
इसलिए भगवान ने
उसकी बॉडी में
शॉर्ट सर्किट कर दिया
भगवान की
तरकीब चल गई
होलिका जल गई

संसार की पहली
वाटर प्रूफ बिल्डिंग
इण्डिया में बनी
सागर तल में
जो थी विष्णु भगवान का
सरकारी रेजीडेन्स
बिल्डिंग का नाम था-
शेषनाग!
शेषनाग समुद्र में चले गए
विशेष नाग
धरती पर ही रह गए
हम उन्हीं के हाथों छले गए

संसार के पहले पत्रकार
नारदजी हुए
किसी भी सत्ता-व्यवस्था से
नहीं डरते थे
तीनों लोकों की सनसनीखेज
रिपोर्टिंग करते थे

सृष्टि के प्रथम कमेन्ट्रेटर
संजय हुए
जिन्होंने नया इतिहास बनाया
महाभारत के युद्ध का
आँखों देखा हाल
अंधे धृतराष्ट्र को
टी.वी. पर देख कर
उन्होंने ही सुनाया

दुनिया में
दादागीरी का आविष्कार
भारत ने ही तो किया यार!
अति प्राचीनकाल में
भारत के शनीचर भगवान ने
तीनों लोकों में
इतना आतंक मचाया
कि हफ्ता वसूली का रिवाज
उनके भक्तों ने ही चलाया
आज भी हर शनिवार को
भक्तजन आते हैं
फोटो दिखाते हैं
हफ्ता ले जाते हैं

ये सुनकर वह हड़बड़ाया
गुस्से में बड़बड़ाया
फालतू बात मत बनाओ
सर्जरी में भारत ने कोई
आविष्कार किया हो तो बताओ
मैं बोला-दोस्त!
संसार को तो
सर्जरी का कॉन्सेप्ट ही
इण्डिया ने दिया था
तू ही बता
गणेशजी का ऑपरेशन
क्या तेरे बाप ने किया था?

तुझे नहीं होगा ध्यान
पहले सर्जन तो थे
शंकर भगवान
सारी दुनिया हो गई फेन
क्या खूब सर्जरी की
हाथी का माथा
और आदमी का ब्रेन
ब्रेन भी सबसे तेज
इसीलिए आज तक है उनका
एवरग्रीन क्रेज

मेरी बात सुन कर वह भन्नाया
तुरन्त वहाँ से
चलता-फिरता नजर आया
तब से उसको ही नहीं
सारी दुनिया को ध्यान है
दुनिया में मुल्क
चाहे जितने भी हों
पर उन सब में
मेरा भारत महान है!

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
ईमेल : kavidube@gmail.com

Thursday, October 22, 2015

जितने घाव दिए हैं तुमने

जितने घाव दिए हैं तुमने, वे मैंने इसलिए सहेजे ।
नयन नीर से पीड़ाओं की औषधियाँ तैयार करूँगा ।।

              मैं तो ऐसा घर हूँ जिसमें
                 मात्र वेदनाएँ रहतीं हैं
             निकली जो नयनों से नदियाँ
                 पहले वे भीतर बहतीं हैं
जितने घाव दिए हैं तुमने, वे सब वंशवृद्धि में रत हैं ।
घावों की इस वंशबेल का सींच - सींच सत्कार करूँगा ।।

              हो सकता है पूर्वजन्म में
                  मैंने कुछ पीड़ाएँ दी हों
              सम्भव है वे पुनर्भरण में
                 तुमने मुझे समर्पित कीं हों
जितने घाव दिए हैं तुमने, वे उस ऋण का चुकतारा हैं
पाउँगा - जीउँगा इसको, आगे नहीं उधार करूँगा ।।

             जीवन खाता बही सरीखा
                  लेन - देन सारे हैं अंकित
             सौदा कोई नया न कर लूँ 
                  सोच - सोचकर हूँ आतंकित
जितने घाव दिए हैं तुमने, सहनशक्ति को परख रहे वे।
हँसकर सहन करुँगा लेकिन नया नहीं व्यवहार करूँगा ।।

             किसे पता है इस दुनिया में
                  कितनी बार और आना है
            आए तो भी क्या होंगे हम
                  यह रहस्य किसने जाना है
जितने घाव दिए हैं तुमने, वे जैसे अनमोल धरोहर।
भीतर-भीतर ही चीखूँगा, व्यक्त किन्तु आभार करूँगा ।।

            मेरे पास पुष्प हैं केवल
               तुम चाहे सारे ले जाओ
            मैं ना कभी उल्हाने दूँगा
                चाहे प्रतिपल शूल चुभाओ
जितने घाव दिए हैं तुमने, वे सब अब तक हरे-हरे हैं
प्रायश्चित के पावन पथ का मैं इनसे शृंगार करूँगा ।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सम्पर्क : 0141-2757575
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Wednesday, October 21, 2015

सब अपनाएँ शाकाहार

मांस नहीं खाएँ, ना ही जीवों को सताएँ
यह सबको बताएँ, सब धर्मों का सार
जैसा खाएँ अन्न, होगा वैसा ही मन
हम सब अपनाएँ शाकाहार

तनिक नहीं शरमाते हो, खुद को सभ्य बताते हो
भोले भाले जीवों को, काट-काट कर खाते हो
यदि जीवों को खाओगे तो, सचमुच पछताओगे
आने वाली नस्लों को, आदमखोर बनाओगे

करते हो कमाल, खाते जीवों को उबाल
फिर ठोकते हो ताल, तुमको धिक्कार
जैसा खाएँ अन्न, होगा वैसा ही मन
हम सब अपनाएँ शाकाहार

कैसे मनुज महान बने, धरती का भगवान बने
जीवों की लाशें खाकर, पेट जो कब्रिस्तान बने
नहीं समझ में आता है, अण्डा रोग बढ़ाता है
तुम न कभी अण्डे खाते, अण्डा तुमको खाता है

सण्डे हो या मण्डे, तुम कभी न खाओ अण्डे
सब छोड़ हथकण्डे, करो इसपे विचार
जैसा खाएँ अन्न, होगा वैसा ही मन
हम सब अपनाएँ शाकाहार

माने चाहे ना माने, सच्चाई को पहचाने
मानवता के माथे पर, हैं कलंक बूचडख़ाने
जितना चाहो धर्म करो, सारे ही शुभ कर्म करो
पशुओं की बलि चढ़ाते हो, इंसानों कुछ शर्म करो

थोड़ी भक्ति भी बढ़ाओ, थोड़ी शक्ति भी जुटाओ
अपनी ही बलि चढ़ाओ, तब माने संसार
जैसा खाएँ अन्न, होगा वैसा ही मन
हम सब अपनाएँ शाकाहार

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Tuesday, October 20, 2015

गीत

कौन जानता है जीवन के अगले पल में क्या होना है ?
बुझते-बुझते कई जल गए, कई बुझ गए जलते- जलते ।।

    समझो तो अपने जीवन में
        आने वाला पल कैसा है ?
    जिसमें घुप्प अँधेरा केवल
        ऐसी एक गुफा जैसा है !
उसी गुफा के भीतर जाकर  मैंने बार- बार देखा है
रुकते-रुकते कई चल गए, कई रुक गए चलते- चलते ।।

    जग में आए और गए सब
        जब भी जैसा जिनका क्रम था
    कई लोग ऐसे भी देखे
        जिन्हें सूर्य होने का भ्रम था
तम के सम्मुख समरांगण में उदय-अस्त का खेल निराला
उगते-उगते कई ढल गए, कई उग गए ढलते- ढलते ।।

    कुछ यायावर आगे निकले
        कुछ यायावर हमसे पिछड़े
    कुछ यायावर साथ चले तो
        कुछ यायावर असमय बिछुड़े
सम्बन्धों के इस अरण्य में ऐसा भी होता आया है
भाते-भाते कई खल गए, कई भा गए खलते-खलते ।।

    सपने-सा संसार सलोना
        जीने का रोमांच सघन है
    पर भविष्य से अनुमानों की
        जैसे जन्मजात अनबन है
हर रहस्य के सिंहद्वार पर लटके हुए नियति के ताले
खुलते-खुलते कई छल गए, कई खुल गए छलते- छलते ।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Monday, October 19, 2015

गीत

पेड़ से पत्ते पुराने झड़ रहे हैं
    कोंपलों के मुस्कुराने का समय है।

देखिए तो वृक्ष की इस सम्पदा को
       जो हरे थे वे सभी पीले पड़े हैं
फिर नई सम्भावनाओं से सहमकर
     आज नतमस्तक हुए अनुभव खड़े हैं

नियति की गति में छिपा विध्वंश है तो
     नीड़ फिर नूतन बनाने का समय है।

वे स्वत: ही टूटकर अब गिर गए हैं
       जिनको आँधी तक कभी न तोड़ पाईं
फूल-फल-पत्ते जो बिछुड़े शाख से तो
         शक्ति कोई भी उन्हें न जोड़ पाई

कूकती कोयल मचलकर कह रही है
      सृजन के नवगीत गाने का समय है।

पल्लवित-पुष्पित स्वत: फिर पेड़ होगा
       फिर इन्हीं सब टहनियों पर फल सजेंगे
फल जो मिट्टी में मिले थे बीज बनकर
       रूप वे भी वृक्ष का धारण करेंगे

 हर गमन की ओट में फिर आगमन है
        मृत्यु से उस पार जाने का समय है

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Saturday, October 17, 2015

दुबेजी के दोहे

तन के इस कुरुक्षेत्र में,
              मन अर्जुन है जान ।
गोविन्द ही हैं आत्मा,
          यह भी गीता-ज्ञान ।।1।।

सुखी रहो आनन्द में,
               जीओ बरस हजार ।
तुम ऐसे फूलो-फलो
                जैसे भ्रष्टाचार ।। 2।।

दीवारों के कान हैं
             पूरा सच यों जान ।
कान संग दीवार में
      चुगलीखोर जुबान ।।4।।

पत्नी के मन में मिलीं,
              दो इच्छाएँ खास ।
बेटा श्रवण कुमार हो,
         पति हो तुलसीदास ।। 3 ।।

यह सच्चाई जानकर,
            आज गये सब काँप ।
कौआ काटे झूठ पर,
      सत्य कहो तो साँप ।।5 ।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Friday, October 16, 2015

महिमा अपम्पार प्रिये!

तेरे मेरे प्यार की है ये महिमा अपरम्पार प्रिये !
हम दोनों अनभिज्ञ दिखे पर जान गया संसार प्रिये !

चोरी चोरी चुपके चुपके,
    तुम भी चहक रहे हो क्या ?
मैं तो महक रहा हूँ प्रतिपल,
    तुम भी महक रहे हो क्या ?

मन के कोमल भावों का है यह पावन विस्तार प्रिये !
हम दोनों अनभिज्ञ दिखे पर जान गया संसार प्रिये !

मैंने रात सिसकते काटी,
    तुम भी रोए-रोए हो
मैं दिन में सोया-सोया सा,
    तुम भी खोए-खोए हो

जग के सारे अनुमानों का, ठोस यही आधार प्रिये !
हम दोनों अनभिज्ञ दिखे पर जान गया संसार प्रिये !

जो भी घटित हुआ जीवन में,
    सब कुछ अपने आप हुआ
मैं क्या जानूं प्रीत में मुझसे,
    पुण्य हुआ या पाप हुआ

मेरी हार जीत जैसी है और जीत भी हार प्रिये !
हम दोनों अनभिज्ञ दिखे पर जान गया संसार प्रिये !

जो गुलाब है महकेगा ही,
    कोई टोक नहीं सकता
सूरज है तो चमकेगा ही,
    कोई रोक नहीं सकता

इसे छिपाने की हर कोशिश है बिलकुल बेकार प्रिये!
हम दोनों अनभिज्ञ दिखे पर जान गया संसार प्रिये !


-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Thursday, October 15, 2015

जय फोकट के माल की

जानबूझकर ढीली छोड़ी कुछ गाँठें हर जाल की ।
हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की ।।

    वोट हमें देना प्यारे!
        हम खुशहाली ला देंगे
    दूध- दही की भारत में
        नदियाँ पुन: बहा देंगे
मुर्गी जन्म भैंस को देगी, करो व्यवस्था ग्वाल की।
हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की ।।

    कहते हैं देखो हमने
        कीर्तिमान हैं सभी छुए
    ऐसे काम किए जैसे
        अब से पहले नहीं हुए
अन्धे ने तस्वीर बना दी है गंजे के बाल की।
हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की ।

    कैसे - कैसे सपने हैं
        कैसी मार रहे शेखी
    हमको लगता है जैसे
        घोड़ी की देखादेखी                
चली मेंडकी के पाँवों में फिर से खुजली नाल की।
हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की।।

    वो मौसम बेदर्दी था
        और ये भी बेदर्दी है
    खादी कंधे पर लादे
        भटक रही फिर वर्दी है
रिश्वतखोरी कथा है जैसे विक्रम और बेताल की।
हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की।।

    बिना बात ही उलझे हैं
        लेना एक न देना दो ।
    सिर्फ समय की बर्बादी
        वह चाहे कितनी भी हो
सारे होली खेल रहे हैं गोबर सनी गुलाल की।
हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की ।।

    अपनी गलती के कारण
        हम ही हक्के-बक्के हैं
    उनको जिम्मेदारी दी
        जो खुद चोर-उचक्के हैं
कुर्सी को अब समझ रहे वे जायदाद ससुराल की
हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की ।।






-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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Monday, October 12, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 23


मंत्री की रूह

ठग

दिया हुक्म यमराज ने, जाकर के तत्काल।
उस मंत्री की रूह को, ले आ अभी निकाल।।
फैलाकर निज जाल, खबर झट देना मुझको।
वह ठग-पक्का घाघ, वहीं ना रख ले तुझको।।

चिन्ता

मुख पर उस यमदूत के, थी चिन्ता की रेख।
मंत्री जी की देह में, रूह नहीं; यह देख।।
बदल गया विधि लेख, सोचता मन में ऐसे।
मुझे यहाँ बिन रूह मिला यह जीवित कैसे?

चकरघिन्न

सोच-सोच करके थका, काम न आया ज्ञान।
डरा हुआ यमदूत भी, मन में था हैरान।।
विधि का ध्वस्त विधान, फर्ज किस तरह निभाऊँ।
मिली नहीं जब रूह साथ में क्या ले जाऊँ?

सेम्पल

नाम वह; चेहरा वही, रंग-रूप-आकार।
बोल-चाल अन्दाज सब, सेम्पल के अनुसार।।
देश, गाँव, परिवार, सही सब दिया दिखाई।
कहाँ गई है रूह बात यह समझ न आई?

घोषित शैतान

ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी, तेजस्वी, गुणखान।
महा चार सौ बीस है, या घोषित शैतान।।
क्या इसकी पहचान, रूप चाहे जो धर ले।
ऐसा ना हो प्राण आज ये मेरे हर ले।।

क्लोन

इसने तो बनवा लिया, शायद अपना क्लोन।
सिम नम्बर तो एक पर, चला रहा दो फोन।।
खतरनाक है टोन, कहीं ऐसा ना कर ले।
मेरी रूह निकाल खुद की देह में धर ले।

स्टेंड

बढ़ती जा रही समस्या, दिखता कहीं न एंड।
आज मुझे यमराज जी, कर देंगे सस्पेंड।।
लेऊँ क्या मैं स्टेंड? जुगत किस तरह भिड़ाऊँ।
रूह यहीं पर छोड़, वहाँ बॉडी ले जाऊँ?

मार्गदर्शन

सेल फोन पर समस्या, बता रहा यमदूत।
बोले तब यमराज यों, मन को रख मजबूत।।
ताकत झोंक अकूत, अरे भोले सहयोगी!
मंत्री की है रूह छिपी कुर्सी में होगी।

बीज

कुर्सी में यमदूत को, मिली अनोखी चीज।
दिखा झलकता उसी में, मंत्री जी का बीज।।
निखरी हुई तमीज, नेह सबका पाती थी।
जाने पर नजदीक खूब बदबू आती थी।।

सरकारी रूह

मंत्री के भी रूह है, इसमें कितनी साँच।
इसीलिए तो लैब में, पड़ी करानी जाँच।।
मिला नतीजा बाँच, सत्य को विस्मय भारी।
आई जाँच रिपोर्ट, रूह है ये सरकारी।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल

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Saturday, October 10, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 22

उत्प्रेरण

नटवरलाल

मेरे प्यारे मित्र ने, किया प्रकट यह भाव।
लड़लो नटवरलाल तुम, अब की बार चुनाव।।
पार गई यदि नाव, तुम्हारा भाग्य खिलेगा।
तुम-सा झाँसेबाज दूसरा कहाँ मिलेगा?

सुझाव

घरवाली के प्रश्न में, शामिल हुआ सुझाव।
आप क्यों नहीं लड़ रहे, अब की बार चुनाव।।
दो मुँछों पर ताव, बहुत चर्चाएँ होंगी।
राजनीति में खूब चलेगा तुम-सा ढोंगी।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
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Friday, October 9, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 21

चुनाव परिणाम

सुन्दरी

जो थी अनिन्द्य सुन्दरी, हारी यों श्रीमान।
भारी संख्या में किया, अन्धों ने मतदान।।
मिटे सभी अरमान, काम ना आए फन्दे!
कुछ आँखों से और कई थे अक्ल से अन्धे!!

मतगणना

मतगणना के बीच में, नेता दीना रोय।
जनाक्रोश के सामने, टिक पाया ना कोय।।
बोय, वही फल होय, कह रहा रोता-रोता।
मतदाता का मूड भाँपना मुश्किल होता।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल

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Thursday, October 8, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 20

मुद्दा

पापाचार

बिजली-पानी औ' सड़क, आरक्षण-रोजगार।
हमें कहा तुम तो करो, इन मुद्दों से प्यार।।
कैसा पापाचार! टिकट बाँटा अपनों को।
हम क्योंकर साकार करें उनके सपनों को?
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
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Wednesday, October 7, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 19

नेता

घोषणा-पत्र

कितने वादे कर चुके, हो नेताजी आप!
रहम करो हम पर जरा, हे नव युग-संताप!
उगल दिया बेमाप, झूठ भी इतना सारा!
लगे सरासर गप्प घोषणा-पत्र तुम्हारा।।

जुगाली

राजनीति में आ गए, जाने कैसे लोग।
जैसे-जैसे लोग हैं, वैसे-वैसे रोग।।
मकसद केवल भोग, सत्य की करें जुगाली।
गुस्सा, प्यार, चरित्र, वायदे सारे जाली।।

औकात

कुछ गुण्डे करने लगे, आपस में यह बात।
नेताओं के सामने, क्या अपनी औकात।
शातिर इनकी जात, नहीं है फिर भी धब्बा।
राजनीति में रहे कई अपने भी अब्बा।।

कूट

लूट मचाई आपने, डाल-डाल कर फूट।
सब पर तो पाबन्दियाँ, चेलों को हर छूट।।
नीति आपकी कूट, नहीं गुण्डों का टोटा।
जो न निभाए साथ उसी के मारो सोटा।।

पुकार

नेता आवत देखकर जनता करे पुकार।
इसके काटे का नहीं है कोई उपचार।
कोई भी हथियार हमें अब बचा न पाए।
ये काटे तो साँप तड़प करके मर जाए।।

बूथ-लुटेरा

गुण्डा खड़ा चुनाव में, लिए राइफल हाथ।
करे बूथ जो कैप्चर, चले हमारे साथ।।
मानो मेरी बात, हाथ में ले लो सोटा।
जो भी करे विरोध घुमा दो उस पर घोटा।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
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Tuesday, October 6, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 18


टिकट-दौड़

वरदान

टिकट मुझे मिल जाय बस, दो ऐसा वरदान।
इस पर यों कहने लगे मुस्काकर भगवान।।
जा रे जा नादान! अभी झट फल पाएगा।।
बस का टिकट खरीद फटाफट मिल जाएगा।।

घाव

टिकट ना दे जब पार्टी, लगता गहरा घाव।
नेता जुड़ा जमीन से, कैसे लड़े चुनाव?
करना हो बदलाव, खोल किस्मत के ताले।
यहाँ टिकट पा जाँय जमीं खिसकाने वाले।।

टिकट-बावले

रहे भटकते रात-दिन, टिकट-बावले लोग।
पापड़ बेले बहुत पर, बचा नहीं कुछ योग।।
घातक कुर्सी रोग, व्यर्थ ही धक्के खाए।
बस का टिकट खरीद बावले घर को लाए।

हल्ला

टिकट मुझे दे दीजिए, मैं आऊँगा काम।
शोर मचाने में रहा, मेरा ऊँचा नाम।।
आएँगे परिणाम, रहूँगा नहीं निठल्ला।
असेम्बली में खूब मचाऊँगा मैं हल्ला।।

वंशवादी

भाई-भतीजा-भार्या, नाती-रिश्तेदार।
काबिल ये ही टिकट के, बाकी सब बेकार।।
दिखता बस परिवार, वंशवादी सब चंगे।
इस हमाम में हमें दिखें सारे दल नंगे।।

टिकट मेल

इस्तीफे की मिसाइल, उठा रही तूफान।
जान हाईकमान की, बिदकी संकट जान।।
अटक गया अभियान, भाँप मौसम का खतरा।
टिकट मेल अब लेट, कहीं पटरी से उतरा।।

मलाई

बेटा, पोता, दोहिता, पत्नी या दामाद।
टिकट दिलाते वक्त ये रहे आपको याद।।
हम क्या जाने स्वाद, छाछ जब हमें पिलाई।
वे डलवाएँ वोट मलाई जिनने खाई।।

मचान

ज्ञापन, उग्र-प्रदर्शन, जलते हुए बयान।
इस्तीफों की धमकियाँ, ढहते हुए मचान।।
कहीं नया अभियान, कहीं चिट्ठी तूफानी।
टिकट बाँटिए ठीक छोड़ अपनी मनमानी।।

विचित्र खबर

सीधा सच्चा आदमी, उज्जवल रहा चरित्र।
टिकट मिल गया उसे तो, होगी खबर विचित्र।।
गंध रहित अब इत्र, आज लगता है ऐसा।
टिकट दिलाए जाति; जोर; तिकड़म या पैसा।।
 
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
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Monday, October 5, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 17


कमाल

वोटिंग की मशीन में, सचमुच बड़ा कमाल।
नीला बटन दबाइये, चिह्न देख तत्काल।।
तोड़ो सबका जाल, बीप बजने पर खिसको।
उसे मिलेगा वोट दिया है तुमने जिसको।।

मतदाता-सूची

छगन पूत है मगन का, रहे समझते आप।
मतदाता सूची कहे, लादू इसका बाप।।
पुण्य हुआ या पाप, करो पड़ताल समूची।
बदल दिया है बाप धन्य मतदाता सूची।।

सट्टा

किसकी होगी जीत या, होगी किसकी हार।
सट्टे के पट्ठे यहाँ, ताल ठोक तैयार।।
खाकर के भी मार, कहे मीठे को खट्टा।
जैसी चाहे वायु बहा सकता है सट्टा।।

नारी

नारी के जब-जब हुए, हैं तेवर विकराल।
नर का उसके सामने, रहा बिगड़ता हाल।।
नहीं गल रही दाल, मुसीबत आई भारी।
वापस ले लो नाम, खड़ी है सम्मुख नारी।।

मूँछ

उलझ गई हर चाल जब, प्रतिद्वंद्वी से जूझ।
मूँछ लगा दी दाँव पर, पंडि़तजी को बूझ।।
रहा नहीं कुछ सूझ, करूँ क्या प्यारे भाई!
लिए उस्तरा नित्य स्वप्न में दिखता नाई।।

मिथ्याचारी

आता है जनतंत्र में, ऐसा भी एक मोड़।
जोड़-तोड़ अरु फोड़ की, लग जाती है होड़।।
दल-निष्ठा सब छोड़, निकलते छल-बलधारी।
जनता जाती हार जीतते मिथ्याचारी।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल

सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
ईमेल : kavidube@gmail.com 

Sunday, October 4, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 16

चुनावी परिदृश्य

गड़बड़झाला

प्रत्याशी दो आ गए लगती कैसे रोक।
अब क्या करें गणेश जी, दी दोनों ने ढोक।।
सके न उनको टोक, हुआ यों गड़बड़झाला।
राजनीति ने आज धर्म संकट में डाला।।

काँटे की टक्कर

चर्चाओं में व्यक्त यह, करते लोग विचार।
काँटे की टक्कर यहाँ, फिर होगी इस बार।।
घूँसा है तैयार, काट बनने चाँटे की।
काँटों में ही सदा रही टक्कर काँटे की।

रैली-रोग

कहीं पालतू लोग हैं, कहीं फालतू लोग।
दोनों के सहयोग से, फैला रैली-रोग।।
यह भी इक उद्योग, योग हो चाहे जो भी।
बुला रहे कर जोड़, सभी सत्ता के लोभी।।

दस्तूर

खड़ा हुआ तो क्या हुआ, पल में उतरा नूर।
वोटर को भाया नहीं, खिसकी कुर्सी दूर।
आवश्यक दस्तूर, हमेशा इसे निभाना।
वोटर के अनुरूप पड़ेगा स्वांग रचाना।।

गंदगी

बढ़ा चुनावी दौर में, मलेरिया का जोर।
सभी दलों की गंदगी, फैल गई चहुँ ओर।।
नहीं ओर या छोर, बड़ी मुश्किल है प्यारे।
भिन-भिन करते काट रहे हैं मच्छर सारे।।

नए दलाल

वोटर तो खामोश है, लीडर सब वाचाल।
बात-बात में खींचते, हैं शब्दों की खाल।।
ये हैं नए दलाल, जाल ऐसा फैलाते।
ज्ञानी-ध्यानी लोग सदा जिसमें फँस जाते।।

चरित्र हार

बना पटाखा फुलझड़ी, चकरी बनी अनार।
एक सीट के लिए हैं, सब कितने लाचार।।
चरित्र समूचा हार, रोशनी बनकर छाए।
दूषित करके वायु खूब मन में इतराए।।


-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल

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Saturday, October 3, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 15

जनसंपर्क

वोटर वंदना

माता-दाता, गुरु, पिता, भ्राता, रिश्तेदार।
पाप-निवारक आप हो इस युग के अवतार।।
सच्चे तारणहार, प्रकट कर सकते गुम को।
हे वोटर भगवान! मनाऊँ कैसे तुम को?

टेंशन

पत्नी माँगे वोट नित, जोड़-जोड़ कर हाथ।
ऐसा देना साथ तुम, जीते मेरा नाथ।।
जनम-जनम का साथ, हँसी कारण समझाते।
यह टेंशन कुछ साल रहे जनता के माथे।।

शामिल बाजा

बरसों से जो निरंकुश, रहे भोगते राज।
झोंपडिय़ों के द्वार पर, वोट माँगते आज।।
नहीं किसी को लाज, बजेगा शामिल बाजा।
मतदाता है यहाँ तंत्र का असली राजा।।

फर्क

राम-राम करने गए, जिनके घर हर साल।
वो खुद चलकर आ गए, लगे पूछने हाल।।
लेकर आए माल, फर्क इतना-सा भाई।
अबकी बार चुनाव संग दीवाली आई।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल

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Friday, October 2, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 14


बागी

आशा

पकड़े टीटी भी नहीं, किस्मत का हो योग।
बिना टिकट भी पहुँचते, मंजिल तक कुछ लोग।।
भीषण कुर्सी-रोग, खूब जब आशा जागी।
चढ़े ट्रेन में साथ निर्दली-दागी-बागी।।

फालतू-पालतू

बागी आवत देखकर बोला उम्मीदवार।
जैसे भी हो रोक दो, तुम इसकी रफ्तार।।
जान बचाओ यार, तिकड़में सब अजमाओ।
तजा फालतू जान पालतू उसे बनाओ।।

हार में जीत

केवल एक अनार है, और कई बीमार।
सारे ही बीमार अब, जता रहे अधिकार।।
जीत मिले या हार, नहीं है अन्तर भारी।
टिकट मिले की हार समझिए जीत हमारी।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
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Thursday, October 1, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 13


आरक्षण

आग

अबकी बार चुनाव है, आरक्षण का खेल।
इस मुद्दे के सामने, बाकी मुद्दे फेल।।
लाठी, गोली, जेल, झुलसना हम देखेंगे।
धधक उठी है आग रोटियां वो सेकेंगे।।

इशारे

कहीं-कहीं मतभेद हैं, और कहीं मनभेद।
लोकतंत्र की नाव में, पड़े दिखाई छेद।।
नहीं किसी को खेद, अभी हैं दूर किनारे।
डूब जाएगी नाव, भँवर के समझ इशारे।।

चक्रव्यूह

प्रश्न विकट है सामने, सभी धनुर्धर मौन।
आरक्षण का चक्रव्यूह, तोड़ेगा अब कौन?
सभी अक्ल में पौन, द्रोण रचकर मुस्काए।
चकित-थकित अभिमन्यु याद अर्जुन की आए।।

आरक्षण

रेलों ने सबको दिया, अति दुर्लभ यह ज्ञान।
आरक्षण यदि नहीं मिला, सफर नहीं आसान?
सोओ चादर तान, नहीं अब धक्के खाओ।
जनरल बोगी छोड़ बर्थ आरक्षित पाओ।।


-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
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