Thursday, April 9, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 5

भ्रष्टाचार

आशीर्वाद

सुखी रहो आनन्द में, जीओ बरस हजार।
तुम ऐसे फूलो-फलो, जैसे भ्रष्टाचार।।
है लिहाज बेकार, सूरमा तक पिट जाए।
जो तुम्हें मिटाने बढ़े स्वयं ही वह मिट जाए।।

सड़क

काम बड़े हैं आपके, जनता समझ न पाय।
सड़क बड़ी मजबूत थी, लेगइ पवन उड़ाय।।
कहते सब मुस्काय, ले गए चूहे बिल में।
धरती पर मत खोज सड़क है उस फाइल में।।

सरकारी निर्माण

पुलिया को मत छेडि़ए, नाजुक याके अंग।
कदम एक जो धर दिया, टूट पड़ेंगे संग।।
बदला-बदला ढंग, यहाँ से जल्दी खिसको।
सरकारी निर्माण दूर से देखो इसको।।

भ्रष्टाचार

आज सुबह कहने लगा, मुझसे भ्रष्टाचार।
नेतागण सब कर चुके, हैं मुझको स्वीकार।।
गफलत में हो यार! लगा देने यों ताने।
किनके बल पर आप चले हो मुझे मिटाने?

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल

सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
ईमेल : kavidube@gmail.com

कुर्सी तू बड़भागिनी - 4

मीडिया

हेराफेरी

यहाँ ढोल में पोल है, वहाँ पोल में ढोल।
रोल मीडिया का सदा, देता आँखें खोल।।
किनके बिस्तर गोल, समझते लगी न देरी।
बड़े-बड़ों की चाह रही है हेरा-फेरी।।

सम्पदा

देख सम्पदा आपकी, बोल उठे सब लोग।
खूब फला है आपको, राजनीति उद्योग।।
अच्छा अवसर योग, कर रहे वर्कर चर्चा।
प्रत्याशी धनवान खूब करवाओ खर्चा।।

आभार

ईश्वर का आभार जो, कर दीनी बरसात।
वरन विरोधी पूछते, बार-बार यह बात।।
नई-नई सौगात, किस तरह पुलिया टूटी?
उठा अगर यह प्रश्न समझ लो किस्मत फूटी।।

रिमोट

सिस्टम में जनतंत्र के, बहुत बड़ी यह खोट।
टीवी इनके पास है, उनके पास रिमोट।।
खूब खर्च कर नोट, कृपा उनकी पाती है।
टीवी पर तस्वीर सिर्फ वो ही आती है।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल

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मोबाइल : 98290-70330
ईमेल : kavidube@gmail.com

Wednesday, April 8, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 3

पैंतरेबाजी/बयान

चोट

पॉलीथिन में धर दिया, जोड़-जोड़ कर खोट।
पाँच साल तक यों चला, फटा-फटाया नोट।।
चलन बना यों चोट, सभी के उतरे मुखड़े।
जिसे भोगना पड़ा पूछिए उससे दुखड़े।।

मजबूरी

बाद चुनावों के बने, जिसकी भी सरकार।
उसमें घुसने के लिए, हम हर पल तैयार।।
समझो बरखुरदार, हमारी यह मजबूरी।
जनादेश का मान, बढ़ाना बहुत जरूरी।।

मुद्दा

ऐसा मुद्दा ढूँढ लो, मचा सकूँ मैं शोर।
प्रतिद्वंद्वी दिखने लगे, मुझसे ज्यादा चोर।।
संकट है यह घोर, नहीं खुद में अच्छाई।
प्रतिद्वंद्वी में खोज इसलिए रोज बुराई।

श्राद्ध

चमचों को बतला रहे, प्रत्याशी गुणखान।
करते जैसे श्राद्ध में, कौओं का सम्मान।।
बगुले वाला ध्यान, चलन देखा है ऐसा।
होते ही मतदान हाल जैसा था वैसा।।

मोल

मिला नहीं है हमारा, हमको खरीददार।
यों हम बिकने के लिए, हैं कब से तैयार।
करो नहीं तकरार, माल का मोल चुकाओ।
मोल चुकाकर खूब आप सेवाएँ पाओ।।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

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Monday, April 6, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 2

कुर्सी महिमा

कुर्सी वंदना

कुर्सी तू बड़भागिनी, कौन तपस्या कीन।
अफसर-तस्कर-मंतरी, सब तेरे आधीन।।
भैंस बजाए बीन, अगर तुझको पा जाए।
कौआ गाने लगे गधा ज्ञानी कहलाए।।

ताकत रूहानी

बादल में ज्यों नीर है, शब्दों में ज्यों सार।
रोम-रोम में रम गया, त्यों कुर्सी का प्यार।।
कुर्सी में है यार, बड़ी ताकत रूहानी।
भगे बुढ़ापा दूर झलकने लगे जवानी।।

मुण्डन

हरदम कुर्सी राखिए, बिन कुर्सी सब सून।
कुर्सी अपने आप में, हेयर कटिंग सैलून।।
काटो तो ना खून, सभी को रोज निखरना।
कुर्सी पर ही यार! सरल है मुण्डन करना।।

बिन कुर्सी

जबरन झट हथियाइये, बनकर दावेदार।
जब तक कुर्सी नहीं मिले, राजनीति बेकार।
करो नहीं बेगार, आज ही बोलो हल्ला।
कुर्सी के बिन नेता लगता बहुत निठल्ला।।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

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में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल

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Saturday, April 4, 2015

कुर्सी तू बड़भागिनी - 1

गठबन्धन

जरदा तेरे पास है, चूना मेरे पास।
आजा गठबन्धन करें, स्वाद बनाएँ खास।।
पूरा है अभ्यास, रगड़ करके बाँटेंगे।
खाकर देंगे थूक; थूककर फिर चाटेंगे।।

ठाठ

अन्धे का कन्धा मिला, लँगड़ा हुआ सवार।
खूब ठाठ से चल पड़ी मिली-जुली सरकार।।
उत्तम हैं आसार, उतर न जाना रंगा।
जब तक अपना साथ, हाल तब तक है चंगा।।

कबूतर-बाज

देख रहे हैं हम सभी, राजनीति का खेल।
साँप-नेवले में यहाँ, होता आया मेल।।
सिद्धान्तों का तेल, निकलते हरदम देखा।
तभी कबूतर-बाज सभी कर लेते एका।।

खाज पर ताज

गठबन्धन की आड़ में, ठगबन्धन का राज।
सबने मिलकर लूट ली, लोकतंत्र की लाज।।
रखा खाज पर ताज, अशुद्धि रही मंत्र में।
घुसा वायरस घोर हमारे लोकतंत्र में।।
-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)

मेरी प्रकाशित पुस्तक
'कुर्सी तू बड़भागिनी'
में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल

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बिखराव जैसी है!

प्रेम की पूरी कथा, अलगाव जैसी है ।
यह समूची व्यवस्था बिखराव जैसी है ।।

इस क्षितिज से उस क्षितिज तक
       और उसके पार आगे
मन हो आरूढ प्रतिपल
        खूब भागे हम अभागे
दौड़ते ही हम रहे पर बढ न पाए
मार्गदर्शी सूचना तक पढ न पाए

जिन्दगी की यात्रा भटकाव जैसी है
यह समूची व्यवस्था बिखराव जैसी है

जन्म से पहले जगत में
     मृत्यु के पश्चात है क्या ?
पूछता हूँ मैं स्वयं से
     इस विषय में ज्ञात है क्या ?
ज्ञान कहलातीं अधूरी सूचनाएँ
आज जो बनवा रही हैं योजनाएँ

स्वप्न की दुनिया जुए के दाव जैसी है
यह समूची व्यवस्था बिखराव जैसी है।

Friday, April 3, 2015

जीवन देवासुर संग्राम

मेरे भीतर ही है रावण
      मेरे भीतर राम
              जीवन देवासुर संग्राम ।

रात अँधेरी उजियारा दिन
रहें नहीं संग्राम किए बिन
       साँझ के पीछे सुबह पड़ी है
            सुबह केपीछे शाम
                  जीवन देवासुर संग्राम

ये विपरीत परस्पर ऐसे
शीत -ऊष्ण होते हैं जैसे
     नित्य युद्धरत हैं दोनों ही
         किए बिना विश्राम
                जीवन देवासुर संग्राम

एक बार बिसराकर अनबन
कर डाला सागर का मंथन
          भोले के हिस्से विष आया
                निकला यह परिणाम
                      जीवन देवासर संग्राम

समझो और स्वयं ही जानो
निज कर्तव्य कर्म पहचानो
       लंका में मन भटके अथवा
            बसे अयोध्या धाम
                   जीवन देवासुर संग्राम

भ्रमित जी रहे सब नर-नारी
बीती उम्र स्वप्न में सारी
         क्या करने आए थे जग में
               करने लगे क्या काम ?
                     जीवन देवासुर संग्राम ।।