Thursday, December 9, 2010

जन्मपत्री बनाम कर्मपत्री

मित्र ने कहा
लड़का-लड़की
शादी के लिए बेकरार!
दोनों के परिवार भी तैयार!!
लेकिन उनकी जन्मपत्रियों में
गुण नहीं मिल रहे हैं यार!!!

मैंने कहा- दोस्त!
नई तकनीक काम में लाओ
जन्मपत्रियों में
गुण नहीं मिल रहे हैं
तो कर्मपत्रियों के दोष मिलाओ

वह दोनों के
समान दोषों की
सूची बनाकर लाया

और बताया-
लड़का भी देरी से उठता है
लड़की भी देरी से उठती है
लड़का भी सिगरेट पीता है
लड़की भी सिगरेट पीती है
लड़का भी पढ़ाई में डफर
लड़की भी पढ़ाई में सिफर
लड़का भी आवारा
लड़की भी आवारा
लड़का भी रोज शेव बनाता है
लड़की भी रोज शेव बनाती है

मैंने कहा-
उत्तम दोष योग है
यह रिश्ता कभी नहीं तिड़केगा
अरे! दो घर बिगड़ते
अब एक ही बिगड़ेगा

रिश्ता करवाना ही है
तो जन्मपत्रियों में
खोपड़ी बाद में खपाओ
पहले दोनों की ब्लड टेस्ट की
रिपोर्ट मँगवाओ
एचआईवी निगेटिव पाओ
तब गुण-दोष मिलाओ
सलाह का यही सार है
बचाव ही उपचार है

Wednesday, July 28, 2010

रेल दुर्घटना



अब अगर कोई किसी से भी यह सवाल पूछे कि आजकल भारतीय रेलें कैसी हैं? तो जवाब मिलेगा कि बिल्कुल रेलमंत्री जैसी हैं। जैसी रेलमंत्री हैं, वैसी ही रेलें हैं। दोनों को ही सिग्नल दिखाई नहीं देते। दोनों ही चाहे जब, जिस किसी से टकराने के मूड में रहती हैं। दोनों के ही पास ऐसे टकराव की कोई वजह नहीं होती। हाँ टक्कर इतनी भयानक होती है कि देखने वाले डर जाते हैं। कुछ तो टक्कर की दहशत से ही मर जाते हैं।
पिछले चुनावों में उनकी टी.एम.सी. एक्सप्रेस ने सीपीएम एक्सप्रेस के ऐसी टक्कर मारी कि कांग्रेस का बायां और बीजेपी का दायाँ कान फट गया। घायल सीपीएम तो तब से अब तक शायद अस्पताल में भर्ती है।
रेल दुर्घटना में कई लोग मरे। जो मरे उन पर आश्रित लोग जीते जी ही मरे समान हो गए। रेल मंत्री का सारा ध्यान पश्चिम बंगाल के चुनावों पर है। रेल यात्री मुख्य चुनाव आयुक्त के समक्ष गुहार लगा रहे हैं कि वे पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव जल्दी करवा दें। अगर वे जीत गईं तो पश्चिम बंगाल की सीएम बन जाएँगी और और अगर हार गई तो प्रधानमंत्री में उनका मंत्रालय बदलने की हिम्मत आ जाएगी। दोनों ही स्थितियों में रेलयात्रियों को राहत मिल जाएगी।
लोग कहते हैं कि नैतिकता के आधार पर उन्हें त्यागपत्र देना चाहिए। यह गलत बात है। राजनीति में नैतिकता को आधार बनाना गलत है। आधार हमेशा नीचे रहता है। ऐसे में नैतिकता के आधार पर चलने वाला राजनेता नैतिकता को कुचल देता है। नैतिकता की रक्षा करना प्रत्येक राजनेता का धर्म है। जरूरी है कि आधार वह स्वयं बने और फिर नैतिकता को जैसा चाहे वैसा चलाए। आजकल की राजनीति यही कहती है। अगर रेल दुर्घटनाओं में इजाफा हुआ तो हो सकता है प्रधानमंत्री जनसंख्या नियंत्रण विभाग का भी प्रभार उन्हें सौंप दें।
फिलहाल उन्हें ध्यान रखना होगा कि फिलहाल वे रेलमंत्री हैं, जनसंख्या नियंत्रण मंत्री नहीं। वे चाहें तो यह बयान जारी कर सकती हैं कि रेल दुर्घटनाओं से बीमा कम्पनियों के कारोबार में उछाल आएगा जो कि बीमे के कारोबार और देश की अर्थव्यवस्था के लिए एक सकारात्मक संकेत है।


Sunday, July 18, 2010

रुपए का प्रतीक चिह्न


एक चुटकुले से बात शुरू कर रहा हूँ। हुआ यूँ कि शहर का एक बेईमान आदमी पन्द्रह रुपए का एक नकली नोट लेकर उसे चलाने के लिए गाँव में गया और गाँव के सीधे-सादे दुकानदार को पन्द्रह रुपए का नोट देकर कहा- ''इसके खुल्ले कर दो।" गाँव के सीधे-सादे दुकानदार ने पन्द्रह रुपए के नोट को लिया और गल्ले में से निकालकर साढ़े सात-साढ़े सात रुपए के दो नोट पकड़ा दिए।

आखिर हमारे रुपए को प्रतीक चिह्न मिल गया। मैंने अपने मौहल्ले के बोर्न जीनियस चकरम चाचा को बधाई दी लेकिन उन्होंने नहीं ली। मेरी बधाई मुझे वापस ऐसे लौटा दी जैसे कि सम्पादक किसी भी लेखक की रचना को 'सम्पादक के अभिवादन एवं खेद सहित' की पर्ची लगाकर बिना पढ़े ही लौटा देते हैं।

मैं अपमानित, आहत और आक्रोशित था। मैंने जिरह करने के अन्दाज में पूछा- ''आपने मेरी बधाई को ध्यान से सुना भी नहीं और वापस भी लौटा दिया! ऐसा क्यों किया?" उन्होंने जवाब दिया- ''प्रतीक चिह्न के विजेता का निर्णय करने वालों ने भी तो तीन हजार तीन सौ इक्कतीस प्रविष्ठियों में से शेष प्रविष्ठियों को बिना ध्यान से देखे ही वापस लौटा दिया था। जब उनसे उसका कारण नहीं पूछ सकते तो मुझसे इसका कारण क्यों पूछ रहे हो?"

मैंने कहा- ''लेकिन बधाई को तो कोई भी वापस नहीं लौटाता। आपने तो हद कर दी। बधाई ही लौटा दी!" वे बोले- ''बधाई तेरी थी। तूने कोई कीमती चीज, मुझे मुफ्त में दी। मैंने तेरी चीज तुझे वापस दे दी। तेरी कीमती चीज को मैंने मुफ्त का माल समझ कर हजम तो नहीं किया? तेरी कीमती चीज तेरे पास। इसमें नाराज होने की क्या जरूरत? बहुत ढूँढऩे पर गलती से ही सही, अगर कोई वाकई ईमानदार अधिकारी मिल जाए, तो मुफ्त के रुपए देकर देखना, वह रखता है क्या?"

स्वयं को निरुत्तर होते देख मैंने फिर मोर्चा सम्हालते हुए कहा- ''लेकिन हमारे रुपए को उसका अपना प्रतीक चिह्न मिल गया, क्या यह खुशी की बात नहीं हैं?" अबकी बार जवाब में उन्होंने सवाल पूछ लिया- ''रुपये को तो उसका अपना प्रतीक चिह्न मिल गया, लेकिन तुझको रुपया मिला क्या? रुपए को चिह्न मिला तो रुपया खुश होगा। तू काहे को खुश है? बेवजह खुश होता है और बेवजह दुखी! बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना!"

मैंने पूछा- ''लेकिन चाचा! इससे आप खुश क्यों नहीं हो?" वे बोले- ''हमारे रुपए की असली समस्या हैं नकली नोटों का छपना। इस प्रतीक चिह्न से नकली नोट छपना बन्द हो जाएँगे क्या? बीमारी तो जुकाम की है और मलेरिया की दवा लेकर खुश हो रहे हो! भूखे आदमी को तो रोटी चाहिए और आप भूखे पेट पड़े आदमी को डिजाइनर ड्रेस दिलवाकर इतरा रहे हो! अरे भाई! करने के सारे काम करो, लेकिन पहले मूल समस्या से नजरें मिलाओ।" चकरम चाचा की बातों ने मुझे ऐसा चकरघिन्न किया कि मेरा दिमाग चकराने लगा और मैंने एक दोहा लिखा-

ऐसा भी बनवाइये, आप नया इक चिह्न।
नकली नोटों से दिखे, अपना रुपया भिन्न॥

Wednesday, June 30, 2010

शादी में स्टेआर्डर

"मियाँ-बीबी राजी तो क्या करेगा काजी?" लेकिन काजी की नाराजी कभी भी पलट सकती है बाजी। इसलिए अब शादी के लिए मियाँ-बीबी के साथ-साथ काजी का राजी होना भी जरूरी है। शादी करके कोई भी पक्ष मुकर जाए तो फिर गवाही में काजी ही काम आएगा और उस काजी की गवाही के आधार पर विवाद का फैसला भी कोई काजी ही करेगा। इसलिए ध्यान रखना चाहिए कि मियाँ-बीबी राजी फिर भी कुछ न कुछ तो कर ही सकता है काजी।
शादी जब मुनष्यों की हो तो प्राय: एक ही काजी होता है लेकिन बैंकों की शादी में तो जिधर देखो उधर एक अलग काजी खड़ा दिखाई देता है। ऐसे में एक भी काजी की नाराजगी से सारा गुड़-गोबर हो सकता है। अभी बैंक ऑफ राजस्थान संग आई।सी।आई।सी।आई. बैंक के आशीर्वाद समारोह की योजना बन ही रही थी कि एक काजी साहब ने सगाई समारोह के आयोजन के खिलाफ बैंक ऑफ राजस्थान के परिवाजनों की शिकायत पर स्टेआर्डर जारी कर दिया। दूसरे काजी साहब ने परिवारजनों की मीटिंग पर स्टेआर्डर दिया।

स्टेआर्डर का अर्थ होता है- यथास्थिति। यानी अगला आदेश मिलने तक आप न तो आगे बढ़ सकते हो और न ही पीछे हट सकते हैं। जो, जिस स्थिति में है वह, उसी स्थति में यथास्थिति को बनाए रखेगा। अब मियाँ-बीबी आपस में राजी रहकर भले ही शादी के लिए खूंटे तुड़वाते रहें, लेकिन काजी की राजी के बिना मियाँ-बीबी के राजी होने का कोई मतलब ही नहीं रहा। परिणाम सामने है। दुल्हा और दुल्हन अगला आदेश मिलने तक सगाई, विवाह, विदाई और आशीर्वाद समारोह का आयोजन तो नहीं ही कर सकेंगे बल्कि उनके परिजन इन कार्यों की योजना बनाने के लिए निमित्त अधिकृत रूप से मिल भी नहीं सकेंगे। यह तो अच्छा हुआ जो यह स्टेआर्डर सगाई के मौके पर ही आ गया, अगर सुहागरात के समय स्टेआर्डर आ जाता तो परेशानी किसी भी स्तर तक बढ़ सकती थी।
बैंक ऑफ राजस्थान के परिवारजनों का मानना है कि यह रिश्ता ठीक नहीं है। आई.सी.आई.सी.आई बैंक इस शादी के होते ही उन्हें सताना शुरू कर देगा। इस रिश्ते के जरिये दरअसल वह बैंक ऑफ राजस्थान को डकारना चाहता है। अगर उनकी यह आशंका सही है तो इसे कहेंगे भारत में विदेशी बैंकों द्वारा आर्थिक आतंकवाद की शुरुआत।

खैर, जो भी हो साफ-सथुरा और पारदर्शी तरीके से हो। ऐसा न होने पर गड़बड़-घोटाले की संभावना बनी रहेगी। परिणाम शुभ नहीं होंगे। जैसे शादी के बाद हम शुभकामना के टेलीग्राम में लिखेंगे "आपका दाम्पत्य मंगलमय हो।" तार विभाग ने अगर साफ-सुथरे तरीके से काम नहीं किया तो वहाँ पहुँचे तार में लिखा होगा- "आपका दाम्पत्य दंगलमय हो।"

Tuesday, June 15, 2010

मूल निवास प्रमाण पत्र

पिछले दिनों अपनी बिटिया का मूल निवास प्रमाण पत्र बनवाने के लिए सुबह ठीक साढे दस बजे कलेक्ट्रेट पहुँचा। दिन भर वहाँ के बाबुओं ने मुझे ऐसा चकरधिन किया कि शाम पाँच बजते-बजते तो मैं खुद अपना मूल निवास भूल गया। समस्या यह खड़ी हो गई कि अपना पता याद रह न रहने पर मैं घर कैसे जाऊँ? मजबूरी में मैंने मूल निवास प्रमाण पत्र के लिए अप्लाई किया तब जाकर घर लौट सका।

हुआ यों कि सावधानी से भरकर प्रस्तुत किए गए फॉर्म को बाबू ने लापरवाही से रिसीव किया। मैंने निवेदन किया-''देख लीजिए कहीं कोई गलती तो नहीं हो गई है?" मैंने कहा-''मेरा परिवार पीढियों' से यहाँ राजस्थान में रह रहा है। मेरे पिताजी भी यहाँ राज्य सेवा में रहकर रिटायर हुए। बच्ची भी यहीं पैदा हुई है और यहीं इसने अपनी सारी पढाई की है। मेरी समझ से इसमें कोई प्रॉब्लम नहीं आनी चाहिए।" वह बोला-''प्राब्लम का फैसला तो आपकी समझ से नहीं, हमारी समझ से होगा।"

खैर, फार्म के साथ अटेच्ड सपोर्टिंग डोक्यूमेन्ट को देखते-देखते अचानक उसकी आँखों में चमक आ गई और उसके ओठों पर एक विषैली मुस्कान तैरने लगी। उसने गर्दन उठाई तथा मेरी आँखों में आँखें डालकर कहा-''इन कागजात के आधार पर तो मूल निवास प्रमाण पत्र बनना बहुत मुश्किल है।" उसकी बात सुनते ही मेेरे कान्फीडेन्स की हवा निकल गई। मैंने पूछा- ''क्या प्राब्लम है?" उसने समझाया-''प्राब्लम ये है कि जिस जिले में आप दस साल से ज्यादा रहे हो, उसमें पिछले तीन वर्षों से लगातार नहीं रह रहे हो और इस जिले में आप अढाई साल से रह रहे हो तो यहाँ आप दस साल से नहीं रह हो। सरकारी कर्मचारी के लिए भी नियम, पिछले तीन वर्षों से लगातार इस जिले में रहने का है। हाँ, 6 महीने बाद यह आराम से बन जाएगा।"

मैंने कहा-''यार 6 दिन बाद तो काउन्सलिंग है। मुझे जयपुर जिले का नहीं राजस्थान का मूल निवासी होने का प्रमाण पत्र दे दो। माँगा भी वही है।" वह बोला-''माँगा तो राजस्थान का जाता है लेकिन नियमानुसार जिले का ही बनाया जाता है। राजस्थान के मूल निवासी होने का प्रमाण पत्र कहीं भी नहीं बनता। सारे पेच इसी बात में हैं। यहाँ तो सारा काम नियमानुसार ही होता है।" मैंने सोचा यार। क्या गजब का दफ्तर है? सारा काम नियमानुसार ही होता है। नियमानुसार का नियम यह है कि सही काम अटकना जरूर चाहिए, भले ही फर्जी काम आराम से हो जाए।

मेरी बात सुनकर उसे झटका लगा। वह कहने लगा-''अब आप चाहे जो समझिए साहब पर काम तो नियमानुसार ही होगा। हम तो साहब के सामने पुट अप कर देंगे। फिर उनके विवेक पर है वे करें, ना करें। वैसे सरकारी काम में कौनसा अफसर है जो अपना विवेक लगाएगा? सरकारी विवेक तो हम हैं, हमारा विवेक ही काम आएगा।"

उसका सारगर्भित व्याख्यान सुनकर मेरे होश उड़ हो गए। मैंने विनम्र होते हुए कहा-''भले आदमी। कई एग्जाम देने के बाद एक ही काउन्सलिंग में उसका नंबर आया है। यह भी निकल गई तो गजब हो जाएगा। ऐसा करो मुझे साहब से मिलवा दो।" वह बोला-''अभी तो नहीं है। आए तब मिल लेना।" मैंने पूछा-''कब आएँगे।" वह बोला-''इस बारे में हम क्या कह सकते हैं? वो हमारे साहब हैं, हम उनके साहब थोड़े ही हैं। वैसे वो साहब भी क्या है जो हर समय सीट पर बैठा मिल जाए।"

मैं समझ गया कि मेरा काम अटक चुका है। मैंने हँसते हुए कहा-''काम को इस पुराने तरीके से अटकाने में आपको भी क्या मजा आया होगा जब मुझे अटकवाने में ही नहीं आया।" उसने पूछा-''क्या मतलब?" मैंने कहा-''आप लोग काम करने की बजाय काम को अटकवाने के लिए बैठे हैं तो फिर तरीका भी इनोवेटिव होनो चाहिए। इसके लिए आप मूल निवास प्रमाण पत्र के लिए आवेदन पत्र का नया परफोरमा बनाइए और उसमें आवेदक से पूछिए 1. नाम 2. पिता का नाम 3. ये कब से आपके पिता हैं। 4. पिछले दस वर्षों में कौन-कौन आपके पिता रहे? 5. पिछले तीन वर्षों से लगातार पिता का नाम? आदि।" मेरी बात सुनकर वह खुद हँसते-हँसते लोटपोट हो गया। हँसते हुए उसने अगले दिन आने की तथा एक और सर्पोटिंग डोक्यूमेन्ट लाने की कारगर सलाह दी।

खैर अगले दिन मुझे मूल निवास प्रमाण पत्र मिल गया लेकिन मैं सोचने लगा कि सतयुग में एक सावित्री हुई थी जो यमराज से अपने पति के प्राण लेकर आ गई थी। उसने एक असम्भव सा काम कर दिखाया था। लेकिन इस कलयुग में उसे अगर यह कहा जाए कि आप कलेक्ट्रेट जाकर अपने बच्चे का मूल निवास प्रमाण पत्र बनवा लाओ तो उसके हाथ-पाँव फूल जाएँगे।

Tuesday, April 27, 2010

सरस्वती जी का त्याग पत्र

पिछले दिनों सरस्वती जी ने ब्रह्माजी को यह कहते हुए त्याग पत्र दे दिया कि अब मुझे नहीं रहना सरस्वती। आप मेरी जगह किसी अन्य सरस्वती को नियुक्त कर दीजिए। ब्रह्माजी ने पूछा-''देवी आप इतनी कुपित किसलिए हैं। ऐसा क्या हो गया जो आप अपना पद त्याग देने को आमादा हैं? सरस्वती जी ने जवाब दिया-''मैं अभी-अभी एक कवि सम्मेलन सुनकर आ रही हूँ। उस कवि सम्मेलन को सुनने के पश्चात् मैंने यह तय किया है कि मुझे अपने पद पर बने रहने का अब अधिकार नहीं। नैतिकता के नाते मुझे अपना पद छोड़ देना चाहिए।"
ब्रह्माजी ने पूछा- देवी! ऐसा क्या हो गया उस कवि सम्मेलन में जो आप अपना पद छोड़ देने पर आमादा हैं? सरस्वती जी ने जवाब दिया-''क्या-क्या नहीं हुआ? कवि कह रहा था कविता मेरी है और कविता कह रही थी मैं दूसरे की हूँ। कवि कह रहा था कि जो रचना मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ, यह कविता है। और वह रचना कह रही थी कि मैं चुटकुला हूँ। आप ही बताओ इन टिपीकल मुकदमों का फैसला कैसे किया जाए?"
सरस्वती जी की बात सुनकर ब्रह्माजी का दिमाग चकराने लगा। उन्होंने कहा-''देवी! लेकिन ये सारे कवि तो आपके ही उपासक हैं। इन्हें समझा दीजिए। त्याग पत्र देने की क्या जरुरत?" लेकिन बीच में ही बात काटते हुए सरस्वतीजी ने कहा- ''आपको पता नहीं है प्रभो! आजकल के कवि बड़े चालाक हो गए हैं। ये ऊपर से तो मुझमें श्रद्धा दर्शाते है लेकिन सच्चे मन से प्यार लक्ष्मी जी से ही करते हैं। ऐसे में उचित यह रहेगा कि आप मेरे डिपार्टमेंट का एडीशनल चार्ज लक्ष्मी जी को ही दे दीजिए। रही इन मुकदमों की बात तो इनका फैसला तो उनका वाहन ही कर देगा। जाति बिरादरी का फैसला तो वैसे भी भारतीय न्याय शास्त्र में वैसे भी सर्वमान्य होता है।"
ब्रह्माजी बोले-''देवी आपका सुझाव बुरा नहीं है। लेकिन मैं आपका त्याग पत्र स्वीकार नहीं करुँगा। आप मुझे बताएँ कि आप आजकल के इन कवियों से आप क्या कहना चाहती हैं? मैं अभी सबको एस.एम.एस. कर देता हूँ। सब ठीक हो जाएँगे।"
इस पर ब्रह्माजी से सरस्वती जी ने जो कहा वह संस्कृत भाषा में एक श्लोक के रूप में था। उस श्लोक का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है- हे ब्रह्माजी! आप इन कवियों को समझाइये कि कविता नहीं लिखने से न तो अपयश मिलता है। न किसी प्रकार की कोई व्याधि होती है, न पाप लगता और न ही नरक की प्राप्ति होती है। लेकिन बुरी कविता लिखने से और चुराई हुई कविता सुनाने से तथा चुटकुले को कविता बताने से इन चारों की प्राप्ति एक साथ होती है।

Saturday, April 24, 2010

आई.पी. एल. का नफा नुकसान

मेरी जितनी निष्ठा क्रिकेट में है उतनी ही निष्ठा अगर भगवान में रही होती तो मुझे भगवान के दर्शन अवश्य हो जाते लेकिन आज तक मुझे आई.पी.एल. के मैचों में क्रिकेट के दर्शन नहीं हुए। जैसे कवि सम्मेलनों में कविता नाम मात्र की होती है वैसे ही आई.पी.एल. में भी क्रिकेट सिर्फ प्रतीकात्मक ही रहती है। इसलिए मैं कहता रहता हूँ कि स्कूल में पढ़ाई, राजनीति में सिद्धान्त और फिल्म में कहानी तो फिर भी मिल सकती है लेकिन आई.पी.एल. में भी क्रिकेट का मिलना बहुत मुश्किल है।
आई.पी.एल. के बारे में हुए ताजा खुलासे ने सबको बता दिया है कि बेट और बॉल का खेल तो प्रतीकात्मक है। असली खेल तो पैसे का है जिसे फिल्म स्टार, उद्योगपति और राजनेता मिलकर खेल रहे हैं जिसे क्रिकेट के बहाने स्टेडियम में जाइए वहाँ आपको चीयर लीडर्स के ठुमके मिलेंगे, शराब मिलेगी, सट्टा मिलेगा लेकिन क्रिकेट भी दिखाई दे तो बताना।
पहले मैदान में सिर्फ क्रिकेट थी। फिर क्रिकेट के जरिये कारोबार होने लगा। अब कारोबार के जरिये क्रिकेट हो रही है। पहले सिर्फ खेल था। फिर खेल में पैसा आया। अब तो सिर्फ पैसे का ही खेल है। क्रिकेट में काला धन आता है तथा सफेद होकर चला जाता है। क्रिकेट, अब खेल नहीं रहा अपितु धन की धुलाई का धोबीघाट हो गया है।
सरकार जाँच कर रही है कि पैसा कहीं से आ रहा है और कहाँ जा रहा है। सीधी सी बात है। गरीबों की जेब से निकलकर अमीरों की तिजोरी में जा रहा है। पैसा गतिमान है। वह जब अमीरों की तिजोरी से निकलता है तो घूम फिरकर वापस उसी में लौट जाता है लेकिन गरीबों की जेब से एक बार निकला हुआ पैसा वापस नहीं लौटता। पैसे का प्रवाह बहुत तेज होता है। जो भी रास्ते में आता है, वह बह जाता है। अभी पिछले सप्ताह ही एक मंत्री जी की कुर्सी बह गई। एक-दो की और बहने वाली है।
कुल मिलाकर आई.पी.एल. में नफा राजनेताओं, उद्योगपतियों, फिल्म स्टार्स का ही है। नुकसान हम सबका है। आई.पी.एल. की यही कारीगरी है। उसने मुझ जैसे करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों का टाइम इक्टठा किया तथा कार्पोरेट जगत् को बल्क में बेच दिया। हमारी समझ में सिर्फ यह आता है कि जो दूसरों का समय इक्टठा करके उसे बल्क में बेच खाता है, वह नि:संदेह खरबपति हो जाता है लेकिन जिसका समय बेचा जाता है उसे कुछ नहीं मिलता है। वह सिर्फ रोता है क्योंकि सारा नफा उसी के नुकसान की कीमत पर होता है।

Saturday, April 17, 2010

कहो ना कार है!

कार और सरकार में एक बड़ी समानता यह है कि ये दोनों आदमी का स्टेट्स सैट करती हैं। इसलिए कहा जाता है कि कार तो कार है, भले ही कबाड़ की हो। सरकार तो सरकार है भले ही जुगाड़ (गठबन्धन) की हो। कबाड़ की कार और जुगाड़ की सरकार चलाने वाला यह जानता है कि उसे रह-रह कर किश्तें चुकानी है। अगर किश्तें नहीं चुका पाया तो अपनी इज्जत गंवानी है।
प्रसंग शादी के लिए रिश्ता तय करने का था। लड़के का पिता अर्द्धआदर्शवादी था। वह अपने मुँह से तो दहेज की माँग नहीं करना चाहता था लेकिन अपने कानों से जरूर सुनना चाहता था कि लड़की का पिता दहेज में क्या-क्या देने वाला है? इसलिए वह न तो 'हाँ' कर रहा था न ही 'ना' कर रहा था। तभी चतुर बिचोलिये ने मोर्चा सम्हाला। उसने लड़के और लड़की के पिता को सुनाते हुए एक गाना गुनगुनाया-
लड़का खुद लड़की से
शादी करने को बेकरार है
कहो ना कार है!

लड़की के पिता ने ज्योंही कहा वह दहेज में कार देने वाला है- बात बन गई। अगर कार से नहीं बनती तो वह कहता कि दहेज में कार तो देंगे ही और साथ में एक साल का पैट्रोल का खर्चा मुफ्त, स्कीम में! खैर, स्कीम की नौबत नहीं आई।
सब कार देखते हैं। कोई नहीं पूछता कि कार कैसे पाई है। नकद खरीदी है, कर्ज में ली है या दहेज में आई है। अगर देहज में पाई है तो क्या कहने। नेकी और पूछ-पूछ। मुफ्त का माल हम लोगों को बहुत भाता है। इसलिए दहेज में कार मिलने की बात होते ही लड़के के पिता को साकार होता दिखाई दिया सपना। वह मन ही मन गाने लगा-
राम नाम जपना
पराया माल अपना

नई नवेली लाडी को नई नवेली गाड़ी में बिठाकर दुल्हा फूला नहीं समा रहा था। वह गाड़ी खुद चला रहा था। दुल्हन को सुसराल से अपने घर ला रहा था। मुफ्त का माल मिला था। इसलिए मन ही मन इतरा रहा था। तभी हाईवे पर खड़ी एक अन्य कार ने उसकी कार को ओवरटेक किया। चार-पाँच मुस्टण्डे उतरे उन्होंने दुल्हा और दुल्हन की कार को रोका उन्हें उतारा और गाड़ी को जबरन उठाकर ले गए। तब बात यों समझ में आई थी कि ससुर जी ने कार छ: महीने पहले लोन पर उठाई थी। कार तो नई-नई थी लेकिन एक भी किश्त नहीं चुकाई थी। इसलिए लोन की कार को फाइनेन्सर का फ्रीलांसर उठाकर ले गया। विरोध करने पर दुल्हे के दो-चार हाथ जमा दिए। ये तो अच्छा हुआ कि उन्होंने गाड़ी ही सीज की। लाडी को सीज नहीं किया। वरना लेने के देने पड़ जाते। मुफ्त की कार में सवार मुफ्त खोर अपनी सुहागरात जंगल में सड़क के किनारे ही मनाते। इसलिए कहा गया है कि-
पैसा खूब कमाइए, बिन पैसा सब सून।
बिन पैसे तो मनेगा सड़क पे हनीमून॥

Thursday, April 1, 2010

थैंक्यू एड्स

स्वास्थ्य अधिकारी से
मैंने पूछा-
आप के दफ्तर में
अचानक
खुशी का माहौल
किसलिए?
वह बोला कि भारत में
एड्स की बीमारी
आ गई है इसलिए

मैंने पूछा-
एड्स की वजह से
खुशियाँ कैसे?
वह बोला कि
दरअसल हमारे देश में
जो भी बीमारी आती है
अपने साथ
बजट लाती है

देश में जब चेचक आई
तब हमने
प्लाट खरीदा था भाई
जब टी.बी. आई
तब नीवें भरवाई
मलेरिया ने
दीवारें खड़ी करवाईं
आगे की योजना
टल रही थी
छत नहीं डल रही थी
लगता है
ये मुश्किल भी
टल जायेगी
एड्स आ गई है ना
देख लेना
अब छत भी डल जायेगी

मैंने पूछा-
एक बात बताओ यार!
हमारे देश में
भ्रष्टाचार की महामारी है
या महामारी का भ्रष्टाचार?
वह बोला
पहले रिसर्च का
बजट आने दो

तब पता करके बतायेंगे
क्या करेक्ट है?
भ्रष्टाचार बीमारी है
या किसी बीमारी का
साइड इफेक्ट है?
लोग डर रहे हैं
एड्स की दहशत से
अच्छे-अच्छों के
चरित्र सुधर रहे हैं!

मैंने कहा-
बच नहीं पायेंगे
जब संक्रमण फैलेगा तो
शहर के शहर
खाली हो जायेंगे
वह बोला-
चिल्लाओ मत
एड्स के जरिये तो हम
अपना स्टेटस् बनायेंगे

मैंने पूछा-
एड्स के जरिये स्टेटस्?
वह बोला-
यूँ समझ लीजिये बस
दादाजी
टी.बी. से मरे
तब यह रोग
लाइलाज था
उस जमाने में
बड़े लोगों का
बड़े रोगों से ही
मरने का रिवाज था
उन्होंने राज-रोग पाया
परिवार का
स्टेटस् बनाया
पिताजी ने उसे
मैन्टेन कर दिखाया
वे कैंसर से मरे
अब अपनी
समझ में ही नहीं
आ रहा था
कि हम क्या करें?
मरने की
इतनी महान् परम्परा को
तोड़ कर
क्या सर्दी-जुकाम से मरें?

अगर आप ऐसी-वैसी
बीमारी से मर जाएंगे
तो ऊपर जाकर पूर्वजों को
कैसे मुँह दिखाएँगे
मरने के बाद लोग भी
आपको कुँजड़ा बताएँगे

वरना कहेंगे
क्या आदमी था
क्या खानदान का
नाम रोशन करा
बड़ा खाता-पीता
रईस बन्दा था
मरा भी तो एड्स से मरा

अगर स्टेटस से प्यार है
तो आपके मरने के लिए
एक हाई क्लास बीमारी
तैयार है
किन्तु अगर
जीवित रहना है तो फिर
बचाव ही उपचार है
अगर चाहते हो बेफ्रिकी
तो भले ही मत कराओ
अमुक-अमुक
चीजों की बिक्री
न ये काम में लाओ
न वो काम में लाओ
एड्स से बचना है
तो फिर सब अपने
चरित्र को ऊँचा उठाओ

Sunday, March 21, 2010

औसत का चक्कर

गणित के अध्यापक की
यह परेशानी थी
पिकनिक पर गए छात्रों को
नदी पार करानी थी

सबसे पहले उसने
समस्या को
गणितीय ज्ञान से आंका
फिर नदी की गहराई को
दस विभिन्न जगहों से नापा
दसों जगहों की गहराई का जोड़ लगाया
फिर उसमें दस का भाग दिया
नदी की गहराई का
औसत निकाल लिया

नदी की औसत गहराई
सिर्फ दो फुट आई
तथा कोई भी छात्र
चार फुट से छोटा नहीं था भाई

अध्यापक बोला-बच्चों!
बिल्कुल मत घबराओ
नि:संकोच नदी में उतर जाओ

छात्र नदी में उतरे
तो डूबने लगे
अध्यापक की विद्वता से
ऊबने लगे
हालात ने टोका
तो उसने
बढ़ते हुए छात्रों को रोका
कागज पैन सम्हाला

नदी की गहराई का औसत
दुबारा निकाला
नदी की गहराई का औसत
इस बार भी सिर्फ दो फुट आया
तो अध्यापक का दिमाग चकराया
बनकर के भोला
वह अपने आप से बोला

लेखे-जोखे ज्यों के त्यों
फिर छोरे-छोरी डूबे क्यों?

आप क्या समझे
यह किसी गणित के अध्यापक की
बेवकूफी की निशानी है?
नहीं दोस्त!
यह तो भारत सरकार के
वित्त मंत्रालय की कहानी है।

हमारा वित्त मंत्री
जब बजट बनाता है
तब सिर्फ आंकड़ों के
औसत से काम चलाता है
चूँकि वह समस्या की गहराई को
ठीक से नहीं नाप पाता है
इसलिए हमारी तरक्की का सपना
हर बार डूब जाता है

Monday, March 8, 2010

महिला सशक्तिकरण बनाम पुरुष निशक्तिकरण

महिला सशक्तिकरण के सरकारी अभियान का परिणाम यह आया कि मेरे घर में पुरुष निशक्तिकरण कार्यक्रम शुरू हो गया। अब पत्नी के सामने मेरी हालत ठीक वैसी है, जैसी कि शेरनी के सामने बंधे हुए बकरे की होती है। जिसे न तो वह खाती है और न ही मारती है, केवल डराती है। डर के मारे बकरे की जान हलक में अटकी रहती है।
घर में घुसते ही आदमी की हस्ती गिर जाती है। शायद इसीलिए घर की व्यवस्था 'घर-गिरहस्ती' कहलाती है। बेचारे आदमी की कोई हस्ती ही नहीं, लेकिन उसकी गिरी हुई हस्ती के प्रति किसी की सहानुभूति भी नहीं है। सभी की सहानुभूति महिलाओं के साथ है। परिणाम सामने है, हमारे देश में महिला आयोग तो है पुरुष आयोग नहीं है। महिलाओं के लिए आयोग और पुरुषों के लिए अभियोग! वाह मेरी सरकार! तुझे भी अन्याय करने का रोग।
महिलाओं को शिकायत है कि साल में सिर्फ एक दिन उनका आता है!! मैं उनसे कहता हू, बेचारे पुरुषों का तो एक भी दिन नहीं आता। बेशक महिला दिवस धूमधाम से मनाइये लेकिन पुरुषों के नाम पर भी दिन न सही, साल में कम से कम एक 'पुरुष रात्रि' तो होनी ही चाहिए। ताकि मामला सन्तुलित रहे।
महिलाओं के लिए लोकसभा व राज्यों की विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण का बिल लगभग डेढ़ दशक से अटका हुआ है। ज्यादातर लोग बिल के समर्थक हैं। कुछ कट्टर विरोधी हैं। महिला आरक्षण का विरोध करने वाले मेरे मुहल्ले के एक नेता से मैंने प्रश्न किया-"आप महिला आरक्षण का विरोध क्यों कर रहे हैं? अगर महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण मिल भी गया तो क्या बिगड़ जाएगा?"
वे बोले- "दुबे जी! आप समझते ही नहीं हैं? समस्या उलझी हुई है। दूर तक की सोच जरूरी है। अगर हमने 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दीं तो उतनी ही आबादी पुरुषों की भी है। देर-सवेर 33 प्रतिशत सीटें पुरुषों के लिए भी आरक्षित करनी पड़ेगी। इस प्रकार 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए तथा 33 प्रतिशत सीटें पुरुषों के लिए आरक्षित हो जाएंगी। अब मान लो कुल 66 प्रतिशत सीटें महिलाओं और पुरुषों के लिए आरक्षित हो गईं, तो यहीं से मुसीबत शुरू होगी।"
मैंने पूछा- "क्या मुसीबत होगी?"
वे बोले- "बची हुई 34 प्रतिशत सीटों पर जो जीतकर आएगे वो क्या कहलाएगे? इसलिए हम विरोध कर रहे हैं।"
महिलाओं के प्रति पुरुषों का अन्याय जग-जाहिर है, लेकिन महिलाओं का पुरुषों के प्रति अन्याय है तो सही पर जगजाहिर नहीं। वह व्यक्तिगत है। बेचारा पुरुष भीतर-भीतर ही रोता रहता है। महिलाएं तो कह भी देती हैं। रो भी पड़ती हैं। लेकिन बेचारा पुरुष तो कह भी नहीं सकता और रो भी नहीं पाता। इसलिए उसकी पीड़ा की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता।
महिलाओं के प्रति अन्याय समाप्त होना ही चाहिए। उसके लिए जो भी सम्भव हो प्रयास किए जाने चाहिए, लेकिन एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए दूसरी अन्यायपूर्ण व्यवस्था को जन्म देने के हुनर में हमारी सरकारों का कोई जवाब ही नहीं है। कुल मिलाकर अब पुरुषों के हिस्से में तो रोना ही है, क्योंकि जिस समाज के माथे पर कन्या भ्रूण हत्या का कलंक लगा हो, उसमें यह सब तो होना ही है।

Wednesday, March 3, 2010

काव्य-पाठ

एकता कपूर का समाज शास्त्र

सभी चाहते हैं कि देश में राष्ट्रीय एकता आए। राष्ट्रीय एकता तो आई नहीं, एकता कपूर आ गई। उसने अनेक घरतोड़ सीरियल बनाकर एकता के महत्व को उजागर किया। योंकि एकता का महत्व वही जान सकता है जो विभाजित हो जाए।
एक सीरियल आया 'कहानी घर घर की।' मुझे आज तक पता नहीं चला कि ये किस घर की कहानी है जिसमें हर औरत षडयन्त्र करती हुई ही नजर आती है। सास-बहू और पति-पत्नी के सम्बन्धों पर एकदम नई अवधारणाएँ पति-पत्नी और सन्तानों की नई-नई महिमाएँ और वेराइटियाँ दिखाई देती हैं। पत्नी कभी नागिन की तरह फुफकारती है तो कभी शेरनी की तरह दहाड़ती है। पति कभी चूहे की तरह गायब हो जाता है तो कभी अचानक प्रकट होकर कुत्ते की तरह भोंकने लगता है।
कहीं माँ ओरीजनल है तो बाप फर्जी। बाप ओरीजनल है तो माँ फर्जी। खैर जैसी एकता कपूर की मर्जी। उसकी कहानियों में आयातित संतानों का भी प्रावधान है। और तो और तीन-चार बार मरकर भी पुनः जीवित हो जाने का विधान है। जब भी कोई खलनायिका रंगत में आ जाती है तो उसकी बिन्दी मोटी हो जाती है और ब्लाउज का साइज छोटा हो जाता है। वाह! क्या स्टाइल है? लेडीज की पहली पसन्द।
मैंने एकता कपूर के सीरियलों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करने की चेष्टा की तो पाया कि उसकी कहानियों में अनेक प्रकार की पत्नियाँ मौजूद हैं। जैसे- मुख्य पत्नी, उप पत्नी, चुप पत्नी और गुपचुप पत्नी। सहायक पत्नी, लायक पत्नी, नालायक पत्नी और दुखदायक पत्नी। अतिरिक्त पत्नी, सामूहिक पत्नी, अर्द्ध पत्नी व अल्प पत्नी। संकल्पित पत्नी और वैकल्पिक पत्नी। औपचारिक पत्नी, अधिकृत पत्नी व पंजीकृत पत्नी। टणांट पत्नी, खुर्राट पत्नी, तदर्थ पत्नी, समर्थ पत्नी और सशर्त पत्नी आदि।
इसी प्रकार उसकी कहानियों में अनेक प्रकार के पति दिखाई दिए। जैसे- उत्पाती पति, खुरापाती पति और जज्बाती पति। रीजनेबल पति, कम्फरटेबल पति। फोल्डिंग पति, पोर्टेबल पति, वाशेबल और होम वाशेबल पति। मेव्रल पति, स्ट्रेचेबल पति व ऑटोमेटिक पति आदि।
उसकी कहानियों में यह सुविधा भी प्रत्येक पति-पत्नी को प्राप्त है कि एक एपिसोड में वे जिस प्रकार के हैं, अगले एपिसोड में वे अन्य प्रकार के भी हो सकते हैं। इसीलिए पिछले एपिसोड में जो जेठ था वह अगले एपिसोड में बाकायदा पति हो जाए तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए।
यों तो अनेक प्रकार के पति-पत्नी एकता कपूर के सीरियलों में दिखाई देंगे लेकिन सात जन्मों तक साथ रहने की कसम खाकर उसे निभाने वाले भारतीय किस्म के पति-पत्नी की एक झलक भी आपको दिख जाए तो मुझे भी बताना।
प्रख्यात हास्य कवि स्व. श्याम जवालामुखी ने मुझे एक मजेदार किस्सा सुनाया। हुआ यों कि एक मगरमच्छ अपने मित्र बन्दर को अपनी पीठ पर बैठाकर समन्दर की सैर करा रहा था। उसने बन्दर से कहा- ''दोस्त आज मेरी शादी की सिल्वर जुबली है। तेरी भाभी यानी मेरी मगरमच्छनी ने पहली बार मुझसे एक चीज माँगी है।'' बन्दर सावधान होते हुए बोला- ''ये कहा होगा कि मुझे बन्दर का दिमाग लाकर दो।'' मगरमच्छ बोला- ''कहा तो यही है लेकिन अब तू यह मत कह देना कि मैं अपना दिमाग तो पेड़ पर ही छोड़कर आ गया हूँ।'' बन्दर बोला- ''दोस्त बात दरअसल ये है कि मुझसे मेरा दिमाग महीने भर के लिए एकता कपूर किराए पर ले गई थी। कल ही महीना पूरा हुआ था। तू पहले बताता तो मैं जाकर ले आता। वह वहीं पड़ा हैं।'' मगरमच्छ कुद्ध होकर बोला- झूठ मत बोल। एकता कपूर के सीरियलों में दिमाग का क्या काम?

Thursday, February 25, 2010

कन्फ्यूजन महिमा

शादी से सिर्फ दो दिन पहले जिन पण्डित जी ने मेरा यज्ञोपवीत संस्कार करवाया उन्होंने मुझे ब्रह्मचर्य का व्रत दिलवाया। मैं कन्फ्यूज होकर सोचने लगा कि अगर मुझे ब्रह्मचारी ही रखना है तो ये मेरी शादी क्यों करवा रहे हैं? और अगर शादी करके मुझे गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना है तो फिर ये मुझे ब्रह्मचर्य का व्रत क्यों दिलवा रहे हैं?
खैर कन्फ्यूजन बरकरार रहा लेकिन शादी भी हो गई। शादी के दौरान मैं अपने इस कन्फ्यूजन को मिटाने में व्यस्त रहा कि हमारे यहाँ शादी की वजह से कन्फ्यूजन होता है या कन्फ्यूजन की वजह से शादी। नीमच के शायर प्रमोद रामावत का यह शेर बार-बार मेरे भीतर गूँजता रहता
उम्र भर कैसे निभेगी, बस इसी से देख ले।
ब्याह करने जा रहा है, हाथ में तलवार है।

दरअसल हम भारतीय लोग बहुत कन्फ्यूज्ड हैं। कन्फ्यूजन से हमारा गहरा नाता है। अगर कन्फ्यूजन नहीं होता तो शायद हममें से कई लोग नहीं होते। कन्फ्यूजन-कन्फ्यूजन में हम सौ करोड़ हो गए लगते हैं।
कन्फ्यूज करने की प्रक्रिया हमारे यहाँ बचपन से ही शुरू हो जाती है। बचपन में मेरे दो आदर्श थे। एक मास्टर जी और दूसरे महात्मा जी। दोनों ने मिलकर मुझे कन्फ्यूज कर दिया। मास्टर जी कहते थे कि खूब काम करो और महात्मा जी बताते थे कि काम मनुष्य का दुश्मन है। मास्टर जी कहते रहते थे कि हिन्दी अंग्रेजी ''समस्त विष्यों की पूरी तैयारी करो'' और महात्मा जी निर्देश देते थे कि ''विषयों से दूर रहो।'' दोनों की बातें सुनकर मैं कन्फ्यूज हो जाता था।
कन्फ्यूजन-कन्फ्यूजन में ही मैं बड़ा हो गया। मैं बड़ा हो गया हूँ यह भी एक बड़ा कन्फ्यूजन ही साबित हुआ। जो भी हो मैंने बड़ा होते ही जान लिया कि यहाँ सब एक दूसरे को कन्फ्यूजन कर रहे हैं। कन्फ्यूज कर करके यूज कर रहे हैं। यूज कर करके फ्यूज कर रहे हैं।
हमारा सबसे बड़ा कन्फ्यूजन यह है कि हम खुद के अलावा और बाकी को बेवकूफ समझते रहते हैं। मैं पचास साल का हो गया हूँ। मेरे बच्चे कॉलेजों में पढ़ रहे हैं लेकिन मेरी माँ आज तक मुझे बेवकूफ ही समझती है। पत्नी सिर्फ समझती ही नहीं बल्कि स्पष्ट रूप से घोष्ति करती है कि ''आप बेवकूफ हो।'' और बच्चे झुँझलाते हुए कहते हैं ''पापा! आप तो समझ ही नहीं सकते।''
सवाल ये है कि जिन तीन पक्षों के लिए मैं तिलतिल कर अपनी जिन्दगी जला रहा हूँ, वे तीनों मुझे क्या समझते हैं? यह अलग बात है कि मैं इन सबको बेवकूफ समझता हूँ।

Monday, February 22, 2010

क्राइम शो की एंकरिंग

एक दिन किसी दोस्त ने मुझ पर यह सलाहात्मक प्रश्न दाग दिया कि तुम किसी न्यूज चैनल पर क्राइम शो की एंकरिंग क्यों नहीं करते? मैंने जवाब दिया कि दोस्त टीवी के प्रोग्राम में तो चॉकलेटी चेहरे वाले लड़के-लड़कियां एंकरिंग करते हैं। दरअसल मेरी शक्ल एंकरिंग के लायक नहीं है। मेरा जवाब सुनते ही वह मेरी अवधारणा का खण्डन करते हुए बोला- "क्राइम शो की एंकरिंग के लिए तो वे छाट-छाट कर बदसूरत वाले चेहरे लाते हैं। तुम तो उसके लिए बिल्कुल फिट हो।" मैं समझ गया कि जिसके ऐसे दोस्त हों उसे दुश्मनों की क्या जरूरत?
खैर, क्राइम शो का एंकर अपनी कर्कश आवाज और भयानक मुख मुद्रा से डरा-डरा कर आपको अपना प्रोग्राम देखने के लिए मजबूर कर देता है। वह बताता है कि क्यों दिया अमुक औरत ने अपने ही पति को जहर? किसलिए किया उसने अपने सगे भाई का कत्ल? किस डकैती के पीछे निकला घर में काम करने वाली नौकरानी का हाथ? आपका समूचा आत्म विश्वास हिला देने के बाद वह बताता है कि ये सब आप के साथ भी हो सकता है।
किसी भी प्रकार टीवी के प्रोग्राम में अपना चेहरा दिखाने की लालसा ने क्राइम शो की एंकरिंग के लिए मुझसे जो स्कि्रप्ट लिखवाई वह इस प्रकार है-


चैन से सोना है तो अब जाग जाओ। बीवी को देखो गुस्से में तो बिस्तर छोड़कर भाग जाओ। खबरें तो सिर्फ बहाना हैं। हमें तो आपको डरा-डरा कर बाहदुर बनाना है।
थानेदार के हाथ से होने वाली पिटाई और बीवी के हाथों से होने वाली धुनाई में सिर्फ एक ही फर्क आता है कि थानेदार को तो फिर भी रहम आ जाता है, बीवी को रहम नहीं आता है। बीवी को अपने शौहर पर रहम की जगह सिर्फ बहम आता है। पेश है इस बारे में अहमदाबाद से हमारे क्राइम रिपोर्टर कुमार झूठा की ये सच्ची रिपोर्ट-
टीवी की स्क्रीन पर हाथ में माइक थामे कुमार झूठा यूं प्रकट होते हैं जैसे कि वे सत्यवादी हरीशचन्द्र के कलयुगी अवतार सिर्फ वे ही हों। वे सिलसिलेवार बताना शुरू करते हैं-
तीस फरवरी का मनहूस दिन था। (यह बात वही जाने कि यह तिथि किस कलेण्डर की शोभा बढ़ाती है) और उसी दिन खेला गया यह खूनी खेल, जिसे देखकर आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे (अगर वे पहले से ही खड़े न हों)।
(अब कुमार अपनी बात को आगे बढ़ाता है-) ये हैं अहमदाबाद के भोला भाई। इनकी पत्नी खूंखार बेन ने ऐसी की इनकी धुनाई कि नाक से खून बह रहा है। हमले में बेलनाकार हथियार का जमकर इस्तेमाल हुआ था।
इस बारे में भोला-भाई मूर्च्छित होने की वजह से कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थे लिहाजा हमने खूंखार बेन से ही बात की।
प्रश्न- क्या आप अपने पति को रोजाना पीटती हैं?
उत्तर- रोजना टाइम किसे मिलता है।
प्रश्न- तो आप अपने पति को कब पीटती है?
उत्तर- एक दिन छोड़कर सब दिन पीटती हूँ।
प्रश्न- एक दिन छोड़कर एक दिन किसलिए?
उत्तर- इसलिए कि मारने के बाद पुचकारना भी तो पड़ता है।
प्रश्न- मारती हैं तब पुचकारती क्यों हैं?
उत्तर- पुचकारूँगी नहीं तो ये घर छोड़कर भाग नहीं जाएगा।
फिर पिटने के लिए खुद पड़ौसन का आदमी थोड़े ही आएगा। इस काम के लिए तो खुद का पति ही ठीक रहता है जो अपने आप नियम से आए और पिट ले।
आइये देखते हैं कि इस बारे में प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डॉ. भेजा चाटिया का क्या कहना है? (स्क्रीन पर डॉ. भेजा चाटिया प्रकट होकर बताते हैं)
आजकल शादी दो आत्माओं का पवित्र मिलन नहीं बल्कि दो आत्माओं की भयानक भिड़न्त का नाम है। किसी भी बीवी को अपने पति को पीटने का शौक नहीं होता (एडिक्शन) आदत होती है। दरअसल ये तेजी से फैलता हुआ नया रोग है 'प्मोर्सं' -PMORS, जिसका फुल फार्म है- पोस्ट मैरीज ओल्ड रिवेंज सिन्ड्रोम। अभी तक इसका उपचार नहीं खोजा जा सका है, इसलिए कुछ बातों का ध्यान रखकर सिर्फ अपना बचाव ही किया जा सकता है। जैसे अगर आप टू व्हीलर व्हीकल चलाते हैं तो हैलमेट पहनकर ही घर में घुसें। फिर घर का माहौल देखकर ही हैलमेट उतारें। और अगर आप कार यूज करते हैं तो पहले से ही आऊटिंग का प्रोग्राम बना लें। खुद घर में घुसने की बजाय पत्नी को बाहर बुलाएं। इन छोटी बातों को अपनी आदत बनाकर इस रोग के प्रभावों से बचा जा सकता है।
अभी वक्त है एक ब्रेक का। ब्रेक के बाद क्राइम रिपोर्टर बताने वाला है कि किसी-----------?

Friday, February 19, 2010

मोबाइल और मिसेज

मोबाइल और मिसेज में बहुत समानताएं हैं। यह तय करना मुश्किल है कि दोनों में से कौन ज्यादा बड़ी बीमारी है? दोनों के प्राइस प्लान जेबकाटू होते हैं और संवाद माथा चाटू। शुरू-शुरू में आदमी दोनों को शौक-शौक में रखता है और बाद में सारी जिन्दगी इस महंगे और अनअफोडेबल शौक का मजा चखता है।

मोबाइल और मिसेज दोनों का यद्यपि बीमा होता है। लेकिन बीमे का ये नुस्खा कभी फायदा नहीं करता क्योंकि क्लेम पाने के चक्कर में जिन्दगी भर प्रीमियम भरना पड़ता है। मोबाइल और मिसेज दोनों को घर में लाने के बाद हर आदमी पछताता है। पछताते-पछताते वह सोचता है कि चैन से सोने के लिए मैं जिन्हें घर में लाया था, उन्हीं की वजह से नीन्द हराम हो गई है। इतनी जल्दबाजी में इन्हें घर में ले आने का फैसला ठीक नहीं था। कुछ दिन रुक जाते तो शायद और नया मॉडल मिल जाता।

सिर्फ समानताएं ही नहीं हैं। मोबाइल और मिसेज में अन्तर भी बहुत हैं। मोबाइल को तो आप फिर भी स्विच ऑफ कर सकते हैं लेकिन मिसेज को नहीं। करना तो दूर सोचना भी रिस्की है। उसे जरा सी भी भनक लग गई तो वह आपको स्विच ऑफ तो कर ही सकती है। और मान लो वह वापस ऑन करना भूल गई तो लेने के देने पड़ जाएगे।

मोबाइल चेंजेबल होता है किन्तु मिसेज अनचेंजेबल, बल्कि अनचैलेंजेबल। लोग बताते हैं कि मोबाइल के तो बाजार में अक्सर एक्सचेंज ऑफर आते रहते हैं। कम्पनियां पेपर में एड दे देकर कहती हैं कि पुराना लाओ और नया ले जाओ। लेकिन मिसेज के मामले में यह सुविधा किसी को भी प्राप्त नहीं है। मोबाइल की तो गारण्टी-वारण्टी भी होती है लेकिन मिसेज की न कोई गारण्टी, न वारण्टी और न ही रिपलेसमेंट, टोटली डूबा हुआ इन्वैस्टमेंट।

अपना तो काम ही सोचने का है, अतः समानताओं और असमानताओं के मैं कई और बिन्दु भी खोज सकता था लेकिन तभी मेरे दिमाग में अचानक उठे विचार ने मुझे विचलित कर दिया। मैं सोचने लगा कि अगर मेरी ही तरह मिसेज भी मोबाइल और हसबैण्ड में तुलना करने लगी तो गजब हो जाएगा। उस तुलना के नतीजों की कल्पना मात्र से ही मेरे पसीने छूटने लगे हैं, इसलिए मैं घबराकर इस लेख को यहीं पर विराम दे रहा हूँ.

Tuesday, February 16, 2010

मैरिज का मास्टर प्लान


आदमी अपने पुरुषार्थ के बूते पर प्रधानमंत्री तो बन सकता है लेकिन इससे उसकी शादी भी हो जाए, यह जरूरी नहीं है। जिन्दगी के इस डिपार्टमेंट में पुरुषार्थ का रोल कम और प्रारब्ध का ज्यादा होता है।

नौकरी नहीं मिलने की वजह से मेरी शादी का प्रोजेक्ट पूरी तरह से खटाई में पड चुका था। मैं मन ही मन बहुत परेशान था। मुझसे भी ज्यादा परेशान थे मेरे मोहल्ले वाले। रिश्तेदार आशंकित और पडौसी आतंकित। कुल मिलाकर मेरा कुँवारापन एक विकराल समस्या बनकर उभर रहा था।

मैं मार्केटिंग का विशेषज्ञ था इसलिए मुझे अपने पुरुषार्थ पर कुछ ज्यादा ही भरोसा था। किसी भी परिस्थिति में मैं हिम्मत हारने वाला नहीं था। अतः मैंने समाज के सभी वर्गों के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए अपनी मैरिज का मास्टर प्लान बनाया।
सबसे पहले मैंने अखबार में विज्ञापन छपवाने की सोची। लेकिन यह फैसला मैंने पहले ही ले लिया था कि अखबार में विज्ञापन तो देंगे क्लासीफाइड में नहीं देंगे क्योंकि विवाह योग्य युवतियों के बुढाते हुए पेरेन्ट्‌स क्लासीफाइड के बारीक अक्षरों को ठीक से नहीं पढ सके तो सारा गुड गोबर हो जाएगा। इसलिए फोटो सहित अलग से विज्ञापन छपना चाहिए ताकि सबकी नजर पडे। विज्ञापन का मैटर भी मैंने पूरा दिमाग लगाकर बनाया। लिखा कि विवाह की इच्छुक युवतियाँ निःसंकोच अपना बायोडेटा भेजें, बिल्कुल नहीं डरें। विवाह योग्य वर-कवि सुरेन्द्र दुबे पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्र्वास करें।''

अखबार के दफ्तार में अपना यह विज्ञापन सौंपते हुए मैंने टेबल पर पडे अखबार को बडी हसरत से निहारा। बाकायदा उसे अपने सिर से लगाकर कहा-एक तेरा सहारा।'' अब मैं पूरी तरह निश्चिंत था। मैंने सोचा कि विवाह योग्य लडकियों के पेरेन्ट्‌स को नींद तो आती नहीं। कल सुबह पाँच बजे अखबार में विज्ञापन देखते ही सात बजे तक तो मेरे घर आ जाएँगे। कल से अपना भाग्य बदलने वाला है, यह सोचकर मैं सो गया। लेकिन मेरी तकदीर ही खराब थी। इस बार संपादक ने गलती कर दी। वैवाहिक विज्ञापनों के पन्ने पर छापने की बजाय उसने गलती से मेरा विज्ञापन शोक समाचार वाले पेज पर छाप दिया।

शोक समाचार वाले पेज पर छपने वाले विज्ञापनों को कोई भी ध्यान से नहीं पढता। सिर्फ फोटो देखते ही समझ जाता है कि इसका विकेट उड चुका है। लिहाजा लडकियों के पेरेन्टस तो आए नहीं लेकिन सुबह-सुबह मेरे घर के बाहर शवयात्रा में शामिल होने वाले लोगों का जमघट जरूर लग गया।

लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। मैंने तुरंत एक मैरिज ब्यूरो खोल लिया। अपने आफिस पर बडा सा बोर्ड टाँगकर उस पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखवाया- दुल्हन वही जो दुबेजी दिलाएँ।'' चार दिन बाद बगल में दूसरा आफिस खुल गया जिसके बोर्ड पर लिखा था- तलाक वही जो चौबे जी कराएँ।''

चौबे ने सोचा कि दुबे जो खुद शादी नहीं कर सका, जरूर दूसरों के ऊटपटांग रिश्ते करवाएगा। ऐसे में इसका हर कस्टमर छः महीने बाद रोता हुआ मेरे पास आएगा। उसे सफलता के लिए अपनी योग्यता की तुलना में मेरी अयोग्यता पर ज्यादा भरोसा था। दोनों की कोशिशें अलग-अलग तरह की थीं। मैं बंधन बेच रहा था और वह मुक्ति। सामाजिक सरोकारों से शून्य लोगों की मजबूरी है कि कभी मेरे पास आए और कभी उसके पास जाए। लेकिन हम दोनों के मन में पता नहीं कौन सा डर है कि दोनों की नजर में एक दूसरे का कस्टमर है।

Thursday, February 11, 2010

प्यार इक कठिन तपस्या


वेलेन्टाइन डे मना, था मैं भी तैयार।
चला प्यार की ओट में, करने नया शिकार॥
देख इक सुन्दर लडकी।
भावना मेरी भडकी॥

मैंने लडकी से कहा, देकरके इक फूल।
आजा मेरी माधुरी, मैं तेरा मकबूल॥
मेरे सपनों की रानी।
बनाएँ प्रेम कहानी॥

ना ना जी उसने कहा, खूब पडेगी मार।
पहलवान की बहिन से, हुआ आपको प्यार॥
अगर ये फूटा भण्डा।
यहीं कर देगा ठण्डा॥

मैंने वापस ले लिया, उससे अपना फूल।
मुझको दिखी अधेड सी, इक महिला अनुकूल॥
फूल दे हृदय टटोला।
प्यार से मैं यों बोला॥

न्योत रहा हूँ मैं तुझे, बन जा मेरी फ्रैण्ड।
तू भी सैकिण्डहैण्ड है, मैं भी सैकिण्डहैण्ड॥
साधना मेरी डोले।
आज तू मेरी हो ले॥

पर मेरी तकदीर में, लिखी हुई थी खोट।
लिपट गई; खिसका लिये, जेब से सारे नोट॥
चोट पैसों की खाई।
तभी घरवाली आई॥

वेलेन्टाइन डे यहाँ, है काँटों का हार।
काम साधकों के लिए, मृगतृष्णा है प्यार॥
प्यार इक कठिन तपस्या।
वासना जटिल समस्या॥

Saturday, February 6, 2010

प्रेमी-प्रेमिका युद्ध


प्रेमिका बोली ताने मार
अरे ओ मजनूं के अवतार!
जैसे कोई रद्‌दी अखबार!

ढोंगी जैसे कोई पुजारी
खतरनाक ज्यों बस सरकारी
तू और तेरी ईमानदारी
जैसे गाँवों में पटवारी

रोज समय पर मुझे बुलाता
नल की तरह लेट खुद आता
फिर भी कारण नहीं बताता
बोल-बोल तू क्यों हैं मौन?
आदमी है या टेलीफोन?
कहाँ गई तेरी डायलटोन?

प्रेमी बोला-ओ मेरी रानी!
फ्लाप फिल्म की घिसी कहानी
देरी से जो भी आता है
बडा वही माना जाता है
तुमको मैं ऐसे समझाता
पहुँचा करती चिट्‌ठी जल्दी
तार सदा देरी से जाता

प्रेमिका बोली होकर खारी
वाह रे बुद्धि से ब्रह्मचारी!
बडा स्वयं को बतलायेगा
नखरे इतने दिखलायेगा
नए बहाने सरकाएगा
हर वादे को बिसराएगा
आश्वासन से भरमाएगा
मुझको क्या मालूम था प्यारे
तू भी नेता बन जायेगा

अस्पताल का वार्ड है तू
फर्जी राशन कार्ड है तू
नकली चकाचौंध है तू
बढती हुई तोंद है तू
पोस्ट ऑफिस का गोंद है तू

शाम को मेरे घर पर आना
खुद आकर मेरे डैडी से
शादी की तू बात चलाना

प्रेमी बोला-ओ माई डीयर!
एक बात समझ लो क्लीयर
डैडी दिख जाता जब तेरा
बदन काँप जाता है मेरा
मेरे मन में भय जगता है
प्रेम सडक पर तेरा डैडी
मुझे स्पीड ब्रेकर लगता है

प्रेमिका बोली पर तू बढ जा
अपनी ही चाहत पर अड जा
बीमे के एजेण्ट सरीखा
जाकर छाती पर ही चढ जा

प्रेमी बोला-ओ मेरी प्यारी!
मुझको डर लगता है भारी
आखिर कैसे रिस्क उठाऊँ
तेरा बाप पुलिस अधिकारी

सारा मजनूँपन हर लेगा
नमक वो चमडी में भर देगा
तेरे बस थप्पड मारेगा
मुझको तो अन्दर कर देगा

प्रेमी को जब डरते देखा
आत्म समर्पण करते देखा
प्रेमिका विकराल हो गई
आँखे उसकी लाल हो गई

कहने लगी ओ पंचर टायर!
पढे-लिखे से ज्यादा कायर!
अब तक नहीं समझ में आया
तूने जीवन व्यर्थ गँवाया
सोचता है जो कर नहीं पाता
वाह रे भारत के मतदाता!