Saturday, October 1, 2016

अब कोई भी क्यों सकुचाए

टूट गया अवरोध समूचा, अब कोई भी क्यों सकुचाए?
जिसको जाना है वह जाए, जिसको आना है वह आए ।।
    एक सुरक्षित पिंजरे सा जग
    हर कोई तोता बन जाता
    बन्धन-बोध मुखर होता है
    तब मन उडऩे को ललचाता
देखो खुला हुआ है पिंजरा, अब कोई भी क्यों सकुचाए ?
जिसको रहना है वह रह ले, जिसको उडऩा हो उड़ जाए।।
    सम्बन्धों में अनुबन्धों ने
    प्रतिबन्धों का पाश बनाया
    जिसमें बन्दी मन का पंछी
    पल भर को भी चहक न पाया
पाश स्वत: ही कटा पड़ा है, अब कोई भी क्यों सकुचाए ?
जिसको रोना है वह रोए, मुस्काना है वह मुस्काए।।
    बहते जल जैसा है जीवन
    नदिया उफन रही हो जैसे
    घटाटोप बादल बरसे हैं
    आप्लावन रुक पाए कैसे ?
सुन लो ये तटबन्ध कह रहे, अब कोई भी क्यों सकुचाए ?
जिसमें साहस हो वो तैरे, बह जाए जो तैर न पाए।।
    इस मधुशाला में हैं सब ही
    प्राय: भोगों के अभ्यासी
    ऐसे राजकुँअर भी आते
    बन जाते हैं जो सन्यासी
अपना-अपना चयन है प्यारे, अब कोई भी क्यों सकुचाए ?
जिसे बुद्ध बनाना है बन ले, नहीं तो वह बुद्धु कहलाए ।।

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
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