Thursday, November 19, 2015

गीत : देह...

जो भी कहना है वो कहदो, फिर न ये अवसर मिलेगा
जा रहा हूँ दूर इतना, मिल न पाऊँगा बिछुड़कर

चिर विदाई के परम पावन क्षणों में
     तोड़कर संकोच खुलकर कह रहा हूँ
देखना चाहा नहीं तुमने कभी भी
      मैं तुम्हारे ही हृदय में रह रहा हूँ

भूल जाओ आज नयनों को मुझे मन से निहारो
चित्र ऐसा हूँ पुन: जो बन न पाएगा बिगड़कर

पूछते हो क्या है जीवन तो समझ लो
     जल पे उभरे बुलबुले जैसी कथा है
मृत्यु के पश्चात जीने की ललक में
      मात्र पश्चाताप से उपजी व्यथा है

स्वयं से संवाद करते तो इसे तुम यों समझ पाते
रसवन्त होता ही नहीं है फल पुन: जैसे निचुड़कर

मोह ने अन्धा किया, लालच ने बहरा
मद कभी आहत हुआ तो क्रोध आया
काम कुण्डली मारकर बैठा है मन में
स्वार्थ ने मस्तिष्क को पागल बनाया

उम्र की अनमोल पूँजी घट रही प्रतिपल समझना
देह! ये उद्यान फिर न लहलहाएगा उजड़कर

-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)
सम्पर्क : 0141-2757575
मोबाइल : 98290-70330
ईमेल : kavidube@gmail.com

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