tag:blogger.com,1999:blog-83983068010771320232024-03-21T06:18:36.439-07:00Kavi Sammelankavi surendra dubehttp://www.blogger.com/profile/15681834766829853809noreply@blogger.comBlogger61125tag:blogger.com,1999:blog-8398306801077132023.post-22637147667643223302016-10-01T15:04:00.001-07:002016-10-01T15:04:57.410-07:00अब कोई भी क्यों सकुचाए<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
टूट गया अवरोध समूचा, अब कोई भी क्यों सकुचाए?<br />जिसको जाना है वह जाए, जिसको आना है वह आए ।।<br /> एक सुरक्षित पिंजरे सा जग<br /> हर कोई तोता बन जाता<br /> बन्धन-बोध मुखर होता है<br /> तब मन उडऩे को ललचाता<br />देखो खुला हुआ है पिंजरा, अब कोई भी क्यों सकुचाए ?<br />जिसको रहना है वह रह ले, जिसको उडऩा हो उड़ जाए।।<br /> सम्बन्धों में अनुबन्धों ने<br /> प्रतिबन्धों का पाश बनाया<br /> जिसमें बन्दी मन का पंछी <br /> पल भर को भी चहक न पाया<br />पाश स्वत: ही कटा पड़ा है, अब कोई भी क्यों सकुचाए ?<br />जिसको रोना है वह रोए, मुस्काना है वह मुस्काए।।<br /> बहते जल जैसा है जीवन <br /> नदिया उफन रही हो जैसे<br /> घटाटोप बादल बरसे हैं<br /> आप्लावन रुक पाए कैसे ?<br />सुन लो ये तटबन्ध कह रहे, अब कोई भी क्यों सकुचाए ?<br />जिसमें साहस हो वो तैरे, बह जाए जो तैर न पाए।।<br /> इस मधुशाला में हैं सब ही<br /> प्राय: भोगों के अभ्यासी<br /> ऐसे राजकुँअर भी आते <br /> बन जाते हैं जो सन्यासी<br />अपना-अपना चयन है प्यारे, अब कोई भी क्यों सकुचाए ?<br />जिसे बुद्ध बनाना है बन ले, नहीं तो वह बुद्धु कहलाए ।।<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
सम्पर्क : 0141-2757575<br />
मोबाइल : 98290-70330<br />
ईमेल : kavidube@gmail.com </div>
kavi surendra dubehttp://www.blogger.com/profile/15681834766829853809noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8398306801077132023.post-31375918017825317852015-11-20T01:31:00.003-08:002015-11-20T01:31:42.548-08:00गीत : मोक्ष पथ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जितने घाव दिए हैं तुमने, वे मैंने इसलिए सहेजे ।<br />नयन नीर से पीड़ाओं की औषधियाँ तैयार करूँगा ।।<br /> मैं तो ऐसा घर हूँ जिसमें<br /> मात्र वेदनाएँ रहती हैं <br /> निकली जो नयनों से नदियाँ<br /> पहले वे भीतर बहती हैं<br />जितने घाव लिए हैं तुमने, वे सब वंशवृद्धि में रत हैं <br />घावों की इस वंशबेल का सींच-सींच सत्कार करूँगा ।। <br /> हो सकता है पूर्वजन्म में <br /> मैंने कुछ पीड़ाएँ दी हों <br /> सम्भव है वे पुनर्भरण में <br /> तुमने मुझे समर्पित की हों<br />जितने घाव दिए हैं तुमने, वे उस ऋण का चुकतारा हैं <br />पाउँगा-जीऊँगा इनको, आगे नहीं उधार करूँगा ।।<br /> जीवन खाताबही सरीखा <br /> लेनदेन सारे हैं अंकित <br /> सौदा कोई नया न करलूँ <br /> सोच-सोचकर हूँ आतंकित<br />जितने घाव दिए हैं तुमने, सहनशक्ति को परख रहे वे <br />हँसकर सहन करूँगा लेकिन आगे नहीं उधार करूँगा ।।<br /> किसे पता है इस दुनिया में <br /> कितनी बार और आना है ?<br /> आए तो भी क्या होंगे हम <br /> यह रहस्य किसने जाना है ?<br />जितने घाव दिए हैं तुमने, वे सब हैं अनमोल धरोहर <br />भीतर-भीतर ही दहकूँगा, व्यक्त किन्तु आभार करूँगा ।<br /> मेरे पास पुष्प हैं केवल <br /> तुम चाहे सारे ले जाओ<br /> मैं न कभी उल्हाने दूँगा <br /> चाहे प्रतिपल शूल चुभाओ <br />जितने घाव दिए हैं तुमने ,वे सबके सब हरे-हरे हैं <br />प्रायश्चित के पावन पथ का , मैं इनसे शृंगार करूंगा ।।<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
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जो भी कहना है वो कहदो, फिर न ये अवसर मिलेगा<br />जा रहा हूँ दूर इतना, मिल न पाऊँगा बिछुड़कर<br /><br />चिर विदाई के परम पावन क्षणों में<br /> तोड़कर संकोच खुलकर कह रहा हूँ<br />देखना चाहा नहीं तुमने कभी भी<br /> मैं तुम्हारे ही हृदय में रह रहा हूँ<br /><br />भूल जाओ आज नयनों को मुझे मन से निहारो<br />चित्र ऐसा हूँ पुन: जो बन न पाएगा बिगड़कर<br /><br />पूछते हो क्या है जीवन तो समझ लो<br /> जल पे उभरे बुलबुले जैसी कथा है<br />मृत्यु के पश्चात जीने की ललक में<br /> मात्र पश्चाताप से उपजी व्यथा है<br /><br />स्वयं से संवाद करते तो इसे तुम यों समझ पाते<br />रसवन्त होता ही नहीं है फल पुन: जैसे निचुड़कर<br /><br />मोह ने अन्धा किया, लालच ने बहरा<br />मद कभी आहत हुआ तो क्रोध आया<br />काम कुण्डली मारकर बैठा है मन में<br />स्वार्थ ने मस्तिष्क को पागल बनाया<br /><br />उम्र की अनमोल पूँजी घट रही प्रतिपल समझना<br />देह! ये उद्यान फिर न लहलहाएगा उजड़कर<br /><br /><b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
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यह प्रलय सी खिन्नता रोती नहीं गाती नहीं है <br />भूल तो पाया नहीं पर याद भी आती नहीं है ।।<br /><br /> शुष्क-सोयी चेतना चंचल बहुत है <br /> वेदना के प्राण में हलचल बहुत है <br /> अब नदी भी रेत की ही पर्त है पर <br /> रेत के नीचे अभी भी जल बहुत है<br />यह सघन जलराशि लेकिन सिन्धु तक जाती नहीं है <br />भूल तो पाया नहीं पर याद भी आती नहीं है ।।<br /><br /> उस समूचे दृश्य से मैं डर गया था <br /> मन तुम्हारे साथ में ही मर गया था <br /> एक भी आँसू न निकला आँख से पर<br /> उर समूचा आँसुओं से भर गया था <br />यह प्रबल संवेदना भी मोह बरसाती नहीं है <br />भूल तो पाया नहीं पर याद भी आती नहीं है <br /><br /> साथ में फिर से तुम्हारे मैं खिलुंगा <br /> यह अटल व्रत है न मैं इससे टलुंगा<br /> मेघ ज्यों मिलते परस्पर हैं गगन में <br /> मैं कभी तुमसे पुन: आकर मिलुंगा <br />कड़कडाती दामिनी मुझको डरा पाती नहीं है <br />भूल तो पाया नहीं पर याद भी आती नहीं है ।।<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
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कौन जानता है जीवन के अगले पल में क्या होना है ?<br />बुझते-बुझते कई जल गए, कई बुझ गए जलते-जलते ।।<br /> समझो तो अपने जीवन में<br /> आने वाला पल कैसा है ?<br /> जिसमें घुप्प अँधेरा केवल<br /> ऐसी एक गुफा जैसा है!<br />उसी गुफा के भीतर जाकर मैंने बार- बार देखा है<br />रुकते-रुकते कई चल पड़े, कई रुक गए चलते-चलते ।।<br /> जग में आए और गए सब<br /> जब-जब जैसा जिसका क्रम था<br /> कई लोग ऐसे भी देखे<br /> जिन्हें सूर्य होने का भ्रम था<br />तम के सम्मुख समरांगण में उदय-अस्त का खेल निराला<br />उगते-उगते कई ढल गए, कई उग गए ढलते-ढलते ।।<br /> बिना चले कुछ आगे निकले<br /> कुछ दौड़े पर हमसे पिछड़े<br /> कुछ सहयात्री साथ चले तो<br /> कुछ यायावर असमय बिछुड़े<br />सम्बन्धों के इस अरण्य में, पृथक-पृथक प्रारब्ध सभी का<br />भाते-भाते कई खल गए, कई भा गए खलते-खलते ।।<br /> सपने सा संसार सलौना<br /> जीने का रोमांच सघन है<br /> पर भविष्य से अनुमानों की<br /> जैसे जन्मजात अनबन है<br />हर रहस्य के सिंहद्वार पर, लटके हुए नियति के ताले<br />खुलते-खुलते कई छल गए, कई खुल गए छलते-छलते।।<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
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पेड़ से पत्ते पुराने झड़ रहे हैं<br /> कोंपलों के मुस्कुराने का समय है ।<br /><br />देखिए तो वृक्ष की इस सम्पदा को<br /> जो हरे थे वे सभी पीले पड़े हैं<br />ज्यों नई सम्भावनाओं से सहमकर<br /> आज नतमस्तक हुए अनुभव खड़े हैं<br /><br />नियति की गति में छिपा विध्वंश है तो<br /> नीड़ फिर नूतन बनाने का समय है <br /><br />वे स्वत: ही टूटकर अब गिर गए हैं<br /> जिनको आँधी तक कभी न तोड़ पाई<br />फूल-फल-पत्ते जो बिछुड़े हैं शाख से तो<br /> शक्ति कोई भी पुन: न जोड़ पाई<br /><br />कूकती कोयल मचलकर कह रही है<br /> सृजन के नवगीत गाने का समय है<br /><br />पल्लवित-पुष्पित स्वत: फिर पेड़ होगा<br /> फिर इन्हीं सब टहनियों पर फल सजेंगे<br />फल जो मिट्टी में मिले थे, बीज बनकर<br /> रूप वे भी वृक्ष का धारण करेंगे<br /><br />हर गमन की ओट में फिर आगमन है<br /> मृत्यु के उस पार जाने का समय है<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
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जरूरत से ज्यादा विकसित<br />
देश के वासी ने मुझसे पूछा-<br />
अगर आपका भारत महान है<br />
तब संसार के<br />
इतने सारे आविष्कारों में<br />
उसका क्या योगदान है?<br />
<br />
मैंने कहा-यार!<br />
संसार की पहली<br />
फायर प्रूफ लेडी<br />
इण्डिया में पैदा हुई थी<br />
नाम था- होलिका<br />
आग में जलती ही नहीं थी<br />
इसलिए उस जमाने में<br />
फायर ब्रिगेड चलती ही नहीं थी<br />
<br />
यह तो हिरण्यकश्यप ने<br />
प्रहलाद को मारने का<br />
षड्यंत्र किया<br />
इसलिए भगवान ने<br />
उसकी बॉडी में<br />
शॉर्ट सर्किट कर दिया<br />
भगवान की<br />
तरकीब चल गई<br />
होलिका जल गई<br />
<br />
संसार की पहली<br />
वाटर प्रूफ बिल्डिंग<br />
इण्डिया में बनी <br />
सागर तल में <br />
जो थी विष्णु भगवान का<br />
सरकारी रेजीडेन्स<br />
बिल्डिंग का नाम था-<br />
शेषनाग!<br />
शेषनाग समुद्र में चले गए<br />
विशेष नाग<br />
धरती पर ही रह गए<br />
हम उन्हीं के हाथों छले गए<br />
<br />
संसार के पहले पत्रकार<br />
नारदजी हुए<br />
किसी भी सत्ता-व्यवस्था से<br />
नहीं डरते थे<br />
तीनों लोकों की सनसनीखेज<br />
रिपोर्टिंग करते थे<br />
<br />
सृष्टि के प्रथम कमेन्ट्रेटर<br />
संजय हुए<br />
जिन्होंने नया इतिहास बनाया<br />
महाभारत के युद्ध का<br />
आँखों देखा हाल<br />
अंधे धृतराष्ट्र को<br />
टी.वी. पर देख कर<br />
उन्होंने ही सुनाया<br />
<br />
दुनिया में<br />
दादागीरी का आविष्कार<br />
भारत ने ही तो किया यार!<br />
अति प्राचीनकाल में<br />
भारत के शनीचर भगवान ने<br />
तीनों लोकों में <br />
इतना आतंक मचाया <br />
कि हफ्ता वसूली का रिवाज<br />
उनके भक्तों ने ही चलाया<br />
आज भी हर शनिवार को<br />
भक्तजन आते हैं<br />
फोटो दिखाते हैं<br />
हफ्ता ले जाते हैं<br />
<br />
ये सुनकर वह हड़बड़ाया<br />
गुस्से में बड़बड़ाया<br />
फालतू बात मत बनाओ<br />
सर्जरी में भारत ने कोई<br />
आविष्कार किया हो तो बताओ<br />
मैं बोला-दोस्त!<br />
संसार को तो<br />
सर्जरी का कॉन्सेप्ट ही<br />
इण्डिया ने दिया था<br />
तू ही बता<br />
गणेशजी का ऑपरेशन<br />
क्या तेरे बाप ने किया था?<br />
<br />
तुझे नहीं होगा ध्यान<br />
पहले सर्जन तो थे<br />
शंकर भगवान<br />
सारी दुनिया हो गई फेन<br />
क्या खूब सर्जरी की<br />
हाथी का माथा<br />
और आदमी का ब्रेन<br />
ब्रेन भी सबसे तेज<br />
इसीलिए आज तक है उनका<br />
एवरग्रीन क्रेज<br />
<br />
मेरी बात सुन कर वह भन्नाया<br />
तुरन्त वहाँ से <br />
चलता-फिरता नजर आया<br />
तब से उसको ही नहीं<br />
सारी दुनिया को ध्यान है<br />
दुनिया में मुल्क <br />
चाहे जितने भी हों<br />
पर उन सब में<br />
मेरा भारत महान है!<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
सम्पर्क : 0141-2757575<br />
मोबाइल : 98290-70330<br />
ईमेल : kavidube@gmail.com </div>
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जितने घाव दिए हैं तुमने, वे मैंने इसलिए सहेजे ।<br />नयन नीर से पीड़ाओं की औषधियाँ तैयार करूँगा ।।<br />
<br /> मैं तो ऐसा घर हूँ जिसमें<br /> मात्र वेदनाएँ रहतीं हैं <br /> निकली जो नयनों से नदियाँ <br /> पहले वे भीतर बहतीं हैं <br />जितने घाव दिए हैं तुमने, वे सब वंशवृद्धि में रत हैं ।<br />घावों की इस वंशबेल का सींच - सींच सत्कार करूँगा ।।<br />
<br /> हो सकता है पूर्वजन्म में <br /> मैंने कुछ पीड़ाएँ दी हों <br /> सम्भव है वे पुनर्भरण में <br /> तुमने मुझे समर्पित कीं हों <br />जितने घाव दिए हैं तुमने, वे उस ऋण का चुकतारा हैं <br />पाउँगा - जीउँगा इसको, आगे नहीं उधार करूँगा ।।<br />
<br /> जीवन खाता बही सरीखा <br /> लेन - देन सारे हैं अंकित <br /> सौदा कोई नया न कर लूँ <br /> सोच - सोचकर हूँ आतंकित<br />जितने घाव दिए हैं तुमने, सहनशक्ति को परख रहे वे।<br />हँसकर सहन करुँगा लेकिन नया नहीं व्यवहार करूँगा ।।<br />
<br /> किसे पता है इस दुनिया में <br /> कितनी बार और आना है <br /> आए तो भी क्या होंगे हम <br /> यह रहस्य किसने जाना है <br />जितने घाव दिए हैं तुमने, वे जैसे अनमोल धरोहर।<br />भीतर-भीतर ही चीखूँगा, व्यक्त किन्तु आभार करूँगा ।।<br />
<br /> मेरे पास पुष्प हैं केवल <br /> तुम चाहे सारे ले जाओ <br /> मैं ना कभी उल्हाने दूँगा <br /> चाहे प्रतिपल शूल चुभाओ <br />जितने घाव दिए हैं तुमने, वे सब अब तक हरे-हरे हैं <br />प्रायश्चित के पावन पथ का मैं इनसे शृंगार करूँगा ।।<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
सम्पर्क : 0141-2757575<br />
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मांस नहीं खाएँ, ना ही जीवों को सताएँ <br />यह सबको बताएँ, सब धर्मों का सार<br />जैसा खाएँ अन्न, होगा वैसा ही मन <br />हम सब अपनाएँ शाकाहार<br /><br />तनिक नहीं शरमाते हो, खुद को सभ्य बताते हो<br />भोले भाले जीवों को, काट-काट कर खाते हो<br />यदि जीवों को खाओगे तो, सचमुच पछताओगे<br />आने वाली नस्लों को, आदमखोर बनाओगे<br /><br />करते हो कमाल, खाते जीवों को उबाल<br />फिर ठोकते हो ताल, तुमको धिक्कार<br />जैसा खाएँ अन्न, होगा वैसा ही मन<br />हम सब अपनाएँ शाकाहार<br /><br />कैसे मनुज महान बने, धरती का भगवान बने<br />जीवों की लाशें खाकर, पेट जो कब्रिस्तान बने<br />नहीं समझ में आता है, अण्डा रोग बढ़ाता है<br />तुम न कभी अण्डे खाते, अण्डा तुमको खाता है<br />
<br />सण्डे हो या मण्डे, तुम कभी न खाओ अण्डे<br />सब छोड़ हथकण्डे, करो इसपे विचार<br />जैसा खाएँ अन्न, होगा वैसा ही मन <br />हम सब अपनाएँ शाकाहार<br /><br />माने चाहे ना माने, सच्चाई को पहचाने<br />मानवता के माथे पर, हैं कलंक बूचडख़ाने<br />जितना चाहो धर्म करो, सारे ही शुभ कर्म करो<br />पशुओं की बलि चढ़ाते हो, इंसानों कुछ शर्म करो<br /><br />थोड़ी भक्ति भी बढ़ाओ, थोड़ी शक्ति भी जुटाओ<br />अपनी ही बलि चढ़ाओ, तब माने संसार<br />जैसा खाएँ अन्न, होगा वैसा ही मन<br />हम सब अपनाएँ शाकाहार<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
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कौन जानता है जीवन के अगले पल में क्या होना है ?<br />बुझते-बुझते कई जल गए, कई बुझ गए जलते- जलते ।।<br />
<br /> समझो तो अपने जीवन में<br /> आने वाला पल कैसा है ?<br /> जिसमें घुप्प अँधेरा केवल<br /> ऐसी एक गुफा जैसा है !<br />उसी गुफा के भीतर जाकर मैंने बार- बार देखा है <br />रुकते-रुकते कई चल गए, कई रुक गए चलते- चलते ।।<br />
<br /> जग में आए और गए सब<br /> जब भी जैसा जिनका क्रम था<br /> कई लोग ऐसे भी देखे <br /> जिन्हें सूर्य होने का भ्रम था <br />तम के सम्मुख समरांगण में उदय-अस्त का खेल निराला<br />उगते-उगते कई ढल गए, कई उग गए ढलते- ढलते ।।<br />
<br /> कुछ यायावर आगे निकले <br /> कुछ यायावर हमसे पिछड़े <br /> कुछ यायावर साथ चले तो <br /> कुछ यायावर असमय बिछुड़े <br />सम्बन्धों के इस अरण्य में ऐसा भी होता आया है <br />भाते-भाते कई खल गए, कई भा गए खलते-खलते ।।<br />
<br /> सपने-सा संसार सलोना<br /> जीने का रोमांच सघन है <br /> पर भविष्य से अनुमानों की<br /> जैसे जन्मजात अनबन है<br />हर रहस्य के सिंहद्वार पर लटके हुए नियति के ताले<br />खुलते-खुलते कई छल गए, कई खुल गए छलते- छलते ।।<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
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पेड़ से पत्ते पुराने झड़ रहे हैं<br /> कोंपलों के मुस्कुराने का समय है।<br /><br />देखिए तो वृक्ष की इस सम्पदा को<br /> जो हरे थे वे सभी पीले पड़े हैं <br />फिर नई सम्भावनाओं से सहमकर<br /> आज नतमस्तक हुए अनुभव खड़े हैं <br /><br />नियति की गति में छिपा विध्वंश है तो<br /> नीड़ फिर नूतन बनाने का समय है।<br /><br />वे स्वत: ही टूटकर अब गिर गए हैं<br /> जिनको आँधी तक कभी न तोड़ पाईं <br />फूल-फल-पत्ते जो बिछुड़े शाख से तो<br /> शक्ति कोई भी उन्हें न जोड़ पाई <br /><br />कूकती कोयल मचलकर कह रही है<br /> सृजन के नवगीत गाने का समय है।<br /><br />पल्लवित-पुष्पित स्वत: फिर पेड़ होगा <br /> फिर इन्हीं सब टहनियों पर फल सजेंगे <br />फल जो मिट्टी में मिले थे बीज बनकर<br /> रूप वे भी वृक्ष का धारण करेंगे <br /><br /> हर गमन की ओट में फिर आगमन है<br /> मृत्यु से उस पार जाने का समय है<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
सम्पर्क : 0141-2757575<br />
मोबाइल : 98290-70330<br />
ईमेल : kavidube@gmail.com</div>
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तन के इस कुरुक्षेत्र में,<br /> मन अर्जुन है जान ।<br />गोविन्द ही हैं आत्मा,<br /> यह भी गीता-ज्ञान ।।1।।<br /><br />सुखी रहो आनन्द में,<br /> जीओ बरस हजार ।<br />तुम ऐसे फूलो-फलो<br /> जैसे भ्रष्टाचार ।। 2।।<br /><br />दीवारों के कान हैं<br /> पूरा सच यों जान ।<br />कान संग दीवार में<br /> चुगलीखोर जुबान ।।4।।<br /><br />पत्नी के मन में मिलीं,<br /> दो इच्छाएँ खास ।<br />बेटा श्रवण कुमार हो,<br /> पति हो तुलसीदास ।। 3 ।।<br /><br />यह सच्चाई जानकर,<br /> आज गये सब काँप ।<br />कौआ काटे झूठ पर,<br /> सत्य कहो तो साँप ।।5 ।।<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
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तेरे मेरे प्यार की है ये महिमा अपरम्पार प्रिये !<br />हम दोनों अनभिज्ञ दिखे पर जान गया संसार प्रिये !<br /><br />चोरी चोरी चुपके चुपके, <br /> तुम भी चहक रहे हो क्या ?<br />मैं तो महक रहा हूँ प्रतिपल, <br /> तुम भी महक रहे हो क्या ?<br /><br />मन के कोमल भावों का है यह पावन विस्तार प्रिये !<br />हम दोनों अनभिज्ञ दिखे पर जान गया संसार प्रिये !<br /><br />मैंने रात सिसकते काटी,<br /> तुम भी रोए-रोए हो<br />मैं दिन में सोया-सोया सा, <br /> तुम भी खोए-खोए हो<br /><br />जग के सारे अनुमानों का, ठोस यही आधार प्रिये !<br />हम दोनों अनभिज्ञ दिखे पर जान गया संसार प्रिये !<br /><br />जो भी घटित हुआ जीवन में,<br /> सब कुछ अपने आप हुआ<br />मैं क्या जानूं प्रीत में मुझसे, <br /> पुण्य हुआ या पाप हुआ<br /><br />मेरी हार जीत जैसी है और जीत भी हार प्रिये !<br />हम दोनों अनभिज्ञ दिखे पर जान गया संसार प्रिये !<br /><br />जो गुलाब है महकेगा ही, <br /> कोई टोक नहीं सकता<br />सूरज है तो चमकेगा ही,<br /> कोई रोक नहीं सकता<br /><br />इसे छिपाने की हर कोशिश है बिलकुल बेकार प्रिये!<br />हम दोनों अनभिज्ञ दिखे पर जान गया संसार प्रिये !<br />
<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
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जानबूझकर ढीली छोड़ी कुछ गाँठें हर जाल की ।<br />हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की ।।<br /><br /> वोट हमें देना प्यारे!<br /> हम खुशहाली ला देंगे<br /> दूध- दही की भारत में<br /> नदियाँ पुन: बहा देंगे<br />मुर्गी जन्म भैंस को देगी, करो व्यवस्था ग्वाल की।<br />हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की ।।<br /><br /> कहते हैं देखो हमने<br /> कीर्तिमान हैं सभी छुए<br /> ऐसे काम किए जैसे<br /> अब से पहले नहीं हुए<br />अन्धे ने तस्वीर बना दी है गंजे के बाल की।<br />हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की ।<br /><br /> कैसे - कैसे सपने हैं<br /> कैसी मार रहे शेखी<br /> हमको लगता है जैसे<br /> घोड़ी की देखादेखी <br />चली मेंडकी के पाँवों में फिर से खुजली नाल की।<br />हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की।।<br /><br /> वो मौसम बेदर्दी था<br /> और ये भी बेदर्दी है<br /> खादी कंधे पर लादे<br /> भटक रही फिर वर्दी है<br />रिश्वतखोरी कथा है जैसे विक्रम और बेताल की।<br />हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की।।<br />
<br /> बिना बात ही उलझे हैं<br /> लेना एक न देना दो ।<br /> सिर्फ समय की बर्बादी<br /> वह चाहे कितनी भी हो<br />सारे होली खेल रहे हैं गोबर सनी गुलाल की।<br />हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की ।।<br /><br /> अपनी गलती के कारण<br /> हम ही हक्के-बक्के हैं<br /> उनको जिम्मेदारी दी<br /> जो खुद चोर-उचक्के हैं<br />कुर्सी को अब समझ रहे वे जायदाद ससुराल की<br />हाथी-घोड़ा-पालकी, जय फोकट के माल की ।।<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
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<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
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<br />
<h3 style="text-align: left;">
मंत्री की रूह</h3>
<h4 style="text-align: left;">
ठग</h4>
दिया हुक्म यमराज ने, जाकर के तत्काल।<br />उस मंत्री की रूह को, ले आ अभी निकाल।।<br />फैलाकर निज जाल, खबर झट देना मुझको।<br />वह ठग-पक्का घाघ, वहीं ना रख ले तुझको।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
चिन्ता</h4>
मुख पर उस यमदूत के, थी चिन्ता की रेख।<br />मंत्री जी की देह में, रूह नहीं; यह देख।।<br />बदल गया विधि लेख, सोचता मन में ऐसे।<br />मुझे यहाँ बिन रूह मिला यह जीवित कैसे?<br />
<h4 style="text-align: left;">
चकरघिन्न</h4>
सोच-सोच करके थका, काम न आया ज्ञान।<br />डरा हुआ यमदूत भी, मन में था हैरान।।<br />विधि का ध्वस्त विधान, फर्ज किस तरह निभाऊँ।<br />मिली नहीं जब रूह साथ में क्या ले जाऊँ?<br />
<h4 style="text-align: left;">
सेम्पल</h4>
नाम वह; चेहरा वही, रंग-रूप-आकार।<br />बोल-चाल अन्दाज सब, सेम्पल के अनुसार।।<br />देश, गाँव, परिवार, सही सब दिया दिखाई।<br />कहाँ गई है रूह बात यह समझ न आई?<br />
<h4 style="text-align: left;">
घोषित शैतान</h4>
ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी, तेजस्वी, गुणखान।<br />महा चार सौ बीस है, या घोषित शैतान।।<br />क्या इसकी पहचान, रूप चाहे जो धर ले।<br />ऐसा ना हो प्राण आज ये मेरे हर ले।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
क्लोन</h4>
इसने तो बनवा लिया, शायद अपना क्लोन।<br />सिम नम्बर तो एक पर, चला रहा दो फोन।।<br />खतरनाक है टोन, कहीं ऐसा ना कर ले।<br />मेरी रूह निकाल खुद की देह में धर ले।<br />
<h4 style="text-align: left;">
स्टेंड</h4>
बढ़ती जा रही समस्या, दिखता कहीं न एंड।<br />आज मुझे यमराज जी, कर देंगे सस्पेंड।।<br />लेऊँ क्या मैं स्टेंड? जुगत किस तरह भिड़ाऊँ।<br />रूह यहीं पर छोड़, वहाँ बॉडी ले जाऊँ?<br />
<h4 style="text-align: left;">
मार्गदर्शन</h4>
सेल फोन पर समस्या, बता रहा यमदूत।<br />बोले तब यमराज यों, मन को रख मजबूत।।<br />ताकत झोंक अकूत, अरे भोले सहयोगी!<br />मंत्री की है रूह छिपी कुर्सी में होगी।<br />
<h4 style="text-align: left;">
बीज</h4>
कुर्सी में यमदूत को, मिली अनोखी चीज।<br />दिखा झलकता उसी में, मंत्री जी का बीज।।<br />निखरी हुई तमीज, नेह सबका पाती थी।<br />जाने पर नजदीक खूब बदबू आती थी।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
सरकारी रूह</h4>
मंत्री के भी रूह है, इसमें कितनी साँच।<br />इसीलिए तो लैब में, पड़ी करानी जाँच।।<br />मिला नतीजा बाँच, सत्य को विस्मय भारी।<br />आई जाँच रिपोर्ट, रूह है ये सरकारी।।<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
मेरी प्रकाशित पुस्तक<br />
<b><span style="color: red;">'कुर्सी तू बड़भागिनी'</span></b><br />
में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल<br />
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<h3 style="text-align: left;">
उत्प्रेरण</h3>
<h4 style="text-align: left;">
नटवरलाल</h4>
मेरे प्यारे मित्र ने, किया प्रकट यह भाव।<br />लड़लो नटवरलाल तुम, अब की बार चुनाव।।<br />पार गई यदि नाव, तुम्हारा भाग्य खिलेगा।<br />तुम-सा झाँसेबाज दूसरा कहाँ मिलेगा?<br />
<h4 style="text-align: left;">
सुझाव</h4>
घरवाली के प्रश्न में, शामिल हुआ सुझाव।<br />आप क्यों नहीं लड़ रहे, अब की बार चुनाव।।<br />दो मुँछों पर ताव, बहुत चर्चाएँ होंगी।<br />राजनीति में खूब चलेगा तुम-सा ढोंगी।।<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
मेरी प्रकाशित पुस्तक<br />
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<h3 style="text-align: left;">
चुनाव परिणाम</h3>
<h4 style="text-align: left;">
सुन्दरी</h4>
जो थी अनिन्द्य सुन्दरी, हारी यों श्रीमान।<br />भारी संख्या में किया, अन्धों ने मतदान।।<br />मिटे सभी अरमान, काम ना आए फन्दे!<br />कुछ आँखों से और कई थे अक्ल से अन्धे!!<br />
<h4 style="text-align: left;">
मतगणना</h4>
मतगणना के बीच में, नेता दीना रोय।<br />जनाक्रोश के सामने, टिक पाया ना कोय।।<br />बोय, वही फल होय, कह रहा रोता-रोता।<br />मतदाता का मूड भाँपना मुश्किल होता।।<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
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<h3 style="text-align: left;">
मुद्दा</h3>
<h4 style="text-align: left;">
पापाचार</h4>
बिजली-पानी औ' सड़क, आरक्षण-रोजगार।<br />हमें कहा तुम तो करो, इन मुद्दों से प्यार।।<br />कैसा पापाचार! टिकट बाँटा अपनों को।<br />हम क्योंकर साकार करें उनके सपनों को?<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
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<h3 style="text-align: left;">
नेता</h3>
<h4 style="text-align: left;">
घोषणा-पत्र</h4>
कितने वादे कर चुके, हो नेताजी आप!<br />रहम करो हम पर जरा, हे नव युग-संताप!<br />उगल दिया बेमाप, झूठ भी इतना सारा!<br />लगे सरासर गप्प घोषणा-पत्र तुम्हारा।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
जुगाली</h4>
राजनीति में आ गए, जाने कैसे लोग।<br />जैसे-जैसे लोग हैं, वैसे-वैसे रोग।।<br />मकसद केवल भोग, सत्य की करें जुगाली।<br />गुस्सा, प्यार, चरित्र, वायदे सारे जाली।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
औकात</h4>
कुछ गुण्डे करने लगे, आपस में यह बात।<br />नेताओं के सामने, क्या अपनी औकात।<br />शातिर इनकी जात, नहीं है फिर भी धब्बा।<br />राजनीति में रहे कई अपने भी अब्बा।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
कूट</h4>
लूट मचाई आपने, डाल-डाल कर फूट।<br />सब पर तो पाबन्दियाँ, चेलों को हर छूट।।<br />नीति आपकी कूट, नहीं गुण्डों का टोटा।<br />जो न निभाए साथ उसी के मारो सोटा।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
पुकार</h4>
नेता आवत देखकर जनता करे पुकार।<br />इसके काटे का नहीं है कोई उपचार।<br />कोई भी हथियार हमें अब बचा न पाए।<br />ये काटे तो साँप तड़प करके मर जाए।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
बूथ-लुटेरा</h4>
गुण्डा खड़ा चुनाव में, लिए राइफल हाथ।<br />करे बूथ जो कैप्चर, चले हमारे साथ।।<br />मानो मेरी बात, हाथ में ले लो सोटा।<br />जो भी करे विरोध घुमा दो उस पर घोटा।।<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
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<br />
<h3 style="text-align: left;">
टिकट-दौड़</h3>
<h4 style="text-align: left;">
वरदान</h4>
टिकट मुझे मिल जाय बस, दो ऐसा वरदान।<br />इस पर यों कहने लगे मुस्काकर भगवान।।<br />जा रे जा नादान! अभी झट फल पाएगा।।<br />बस का टिकट खरीद फटाफट मिल जाएगा।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
घाव</h4>
टिकट ना दे जब पार्टी, लगता गहरा घाव।<br />नेता जुड़ा जमीन से, कैसे लड़े चुनाव?<br />करना हो बदलाव, खोल किस्मत के ताले।<br />यहाँ टिकट पा जाँय जमीं खिसकाने वाले।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
टिकट-बावले</h4>
रहे भटकते रात-दिन, टिकट-बावले लोग।<br />पापड़ बेले बहुत पर, बचा नहीं कुछ योग।।<br />घातक कुर्सी रोग, व्यर्थ ही धक्के खाए।<br />बस का टिकट खरीद बावले घर को लाए।<br />
<h4 style="text-align: left;">
हल्ला</h4>
टिकट मुझे दे दीजिए, मैं आऊँगा काम।<br />शोर मचाने में रहा, मेरा ऊँचा नाम।।<br />आएँगे परिणाम, रहूँगा नहीं निठल्ला।<br />असेम्बली में खूब मचाऊँगा मैं हल्ला।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
वंशवादी</h4>
भाई-भतीजा-भार्या, नाती-रिश्तेदार।<br />काबिल ये ही टिकट के, बाकी सब बेकार।।<br />दिखता बस परिवार, वंशवादी सब चंगे।<br />इस हमाम में हमें दिखें सारे दल नंगे।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
टिकट मेल</h4>
इस्तीफे की मिसाइल, उठा रही तूफान।<br />जान हाईकमान की, बिदकी संकट जान।।<br />अटक गया अभियान, भाँप मौसम का खतरा।<br />टिकट मेल अब लेट, कहीं पटरी से उतरा।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
मलाई</h4>
बेटा, पोता, दोहिता, पत्नी या दामाद।<br />टिकट दिलाते वक्त ये रहे आपको याद।।<br />हम क्या जाने स्वाद, छाछ जब हमें पिलाई।<br />वे डलवाएँ वोट मलाई जिनने खाई।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
मचान</h4>
ज्ञापन, उग्र-प्रदर्शन, जलते हुए बयान।<br />इस्तीफों की धमकियाँ, ढहते हुए मचान।।<br />कहीं नया अभियान, कहीं चिट्ठी तूफानी।<br />टिकट बाँटिए ठीक छोड़ अपनी मनमानी।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
विचित्र खबर</h4>
सीधा सच्चा आदमी, उज्जवल रहा चरित्र।<br />टिकट मिल गया उसे तो, होगी खबर विचित्र।।<br />गंध रहित अब इत्र, आज लगता है ऐसा।<br />टिकट दिलाए जाति; जोर; तिकड़म या पैसा।।<br /><b> </b><br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
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<br />
<h4 style="text-align: left;">
कमाल</h4>
वोटिंग की मशीन में, सचमुच बड़ा कमाल।<br />नीला बटन दबाइये, चिह्न देख तत्काल।।<br />तोड़ो सबका जाल, बीप बजने पर खिसको।<br />उसे मिलेगा वोट दिया है तुमने जिसको।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
मतदाता-सूची</h4>
छगन पूत है मगन का, रहे समझते आप।<br />मतदाता सूची कहे, लादू इसका बाप।।<br />पुण्य हुआ या पाप, करो पड़ताल समूची।<br />बदल दिया है बाप धन्य मतदाता सूची।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
सट्टा</h4>
किसकी होगी जीत या, होगी किसकी हार।<br />सट्टे के पट्ठे यहाँ, ताल ठोक तैयार।।<br />खाकर के भी मार, कहे मीठे को खट्टा।<br />जैसी चाहे वायु बहा सकता है सट्टा।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
नारी</h4>
नारी के जब-जब हुए, हैं तेवर विकराल।<br />नर का उसके सामने, रहा बिगड़ता हाल।।<br />नहीं गल रही दाल, मुसीबत आई भारी।<br />वापस ले लो नाम, खड़ी है सम्मुख नारी।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
मूँछ </h4>
उलझ गई हर चाल जब, प्रतिद्वंद्वी से जूझ।<br />मूँछ लगा दी दाँव पर, पंडि़तजी को बूझ।।<br />रहा नहीं कुछ सूझ, करूँ क्या प्यारे भाई!<br />लिए उस्तरा नित्य स्वप्न में दिखता नाई।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
मिथ्याचारी</h4>
आता है जनतंत्र में, ऐसा भी एक मोड़।<br />जोड़-तोड़ अरु फोड़ की, लग जाती है होड़।।<br />दल-निष्ठा सब छोड़, निकलते छल-बलधारी।<br />जनता जाती हार जीतते मिथ्याचारी।।<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
मेरी प्रकाशित पुस्तक<br />
<b><span style="color: red;">'कुर्सी तू बड़भागिनी'</span></b><br />
में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल<br />
<br />
सम्पर्क : 0141-2757575<br />
मोबाइल : 98290-70330<br />
ईमेल : kavidube@gmail.com <br />
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kavi surendra dubehttp://www.blogger.com/profile/15681834766829853809noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8398306801077132023.post-75474761280633827112015-10-04T00:57:00.002-07:002015-10-05T01:17:26.486-07:00कुर्सी तू बड़भागिनी - 16<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h3 style="text-align: left;">
चुनावी परिदृश्य</h3>
<h4 style="text-align: left;">
गड़बड़झाला</h4>
प्रत्याशी दो आ गए लगती कैसे रोक।<br />
अब क्या करें गणेश जी, दी दोनों ने ढोक।।<br />
सके न उनको टोक, हुआ यों गड़बड़झाला।<br />
राजनीति ने आज धर्म संकट में डाला।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
काँटे की टक्कर</h4>
चर्चाओं में व्यक्त यह, करते लोग विचार।<br />
काँटे की टक्कर यहाँ, फिर होगी इस बार।।<br />
घूँसा है तैयार, काट बनने चाँटे की।<br />
काँटों में ही सदा रही टक्कर काँटे की।<br />
<h4 style="text-align: left;">
रैली-रोग</h4>
कहीं पालतू लोग हैं, कहीं फालतू लोग।<br />
दोनों के सहयोग से, फैला रैली-रोग।।<br />
यह भी इक उद्योग, योग हो चाहे जो भी।<br />
बुला रहे कर जोड़, सभी सत्ता के लोभी।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
दस्तूर</h4>
खड़ा हुआ तो क्या हुआ, पल में उतरा नूर।<br />
वोटर को भाया नहीं, खिसकी कुर्सी दूर।<br />
आवश्यक दस्तूर, हमेशा इसे निभाना।<br />
वोटर के अनुरूप पड़ेगा स्वांग रचाना।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
गंदगी</h4>
बढ़ा चुनावी दौर में, मलेरिया का जोर।<br />सभी दलों की गंदगी, फैल गई चहुँ ओर।।<br />नहीं ओर या छोर, बड़ी मुश्किल है प्यारे।<br />भिन-भिन करते काट रहे हैं मच्छर सारे।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
नए दलाल</h4>
वोटर तो खामोश है, लीडर सब वाचाल।<br />बात-बात में खींचते, हैं शब्दों की खाल।।<br />ये हैं नए दलाल, जाल ऐसा फैलाते।<br />ज्ञानी-ध्यानी लोग सदा जिसमें फँस जाते।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
चरित्र हार</h4>
बना पटाखा फुलझड़ी, चकरी बनी अनार।<br />एक सीट के लिए हैं, सब कितने लाचार।।<br />चरित्र समूचा हार, रोशनी बनकर छाए।<br />दूषित करके वायु खूब मन में इतराए।।<br /><br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b><br />
मेरी प्रकाशित पुस्तक<br />
<b><span style="color: red;">'कुर्सी तू बड़भागिनी'</span></b><br />
में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल<br />
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ईमेल : kavidube@gmail.com </div>
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<h3 style="text-align: left;">
जनसंपर्क</h3>
<h4 style="text-align: left;">
वोटर वंदना</h4>
माता-दाता, गुरु, पिता, भ्राता, रिश्तेदार।<br />पाप-निवारक आप हो इस युग के अवतार।।<br />सच्चे तारणहार, प्रकट कर सकते गुम को।<br />हे वोटर भगवान! मनाऊँ कैसे तुम को?<br />
<h4 style="text-align: left;">
टेंशन</h4>
पत्नी माँगे वोट नित, जोड़-जोड़ कर हाथ।<br />ऐसा देना साथ तुम, जीते मेरा नाथ।।<br />जनम-जनम का साथ, हँसी कारण समझाते।<br />यह टेंशन कुछ साल रहे जनता के माथे।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
शामिल बाजा</h4>
बरसों से जो निरंकुश, रहे भोगते राज।<br />झोंपडिय़ों के द्वार पर, वोट माँगते आज।।<br />नहीं किसी को लाज, बजेगा शामिल बाजा।<br />मतदाता है यहाँ तंत्र का असली राजा।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
फर्क</h4>
राम-राम करने गए, जिनके घर हर साल।<br />वो खुद चलकर आ गए, लगे पूछने हाल।।<br />लेकर आए माल, फर्क इतना-सा भाई।<br />अबकी बार चुनाव संग दीवाली आई।।<br />
<br />
<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b> <br />
मेरी प्रकाशित पुस्तक<br /><b><span style="color: purple;">'कुर्सी तू बड़भागिनी'</span></b><br />में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल<br /><br />सम्पर्क : 0141-2757575<br />मोबाइल : 98290-70330<br />ईमेल : kavidube@gmail.com </div>
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<h3 style="text-align: left;">
बागी</h3>
<h4 style="text-align: left;">
आशा</h4>
पकड़े टीटी भी नहीं, किस्मत का हो योग।<br />बिना टिकट भी पहुँचते, मंजिल तक कुछ लोग।।<br />भीषण कुर्सी-रोग, खूब जब आशा जागी।<br />चढ़े ट्रेन में साथ निर्दली-दागी-बागी।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
फालतू-पालतू</h4>
बागी आवत देखकर बोला उम्मीदवार।<br />जैसे भी हो रोक दो, तुम इसकी रफ्तार।।<br />जान बचाओ यार, तिकड़में सब अजमाओ।<br />तजा फालतू जान पालतू उसे बनाओ।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
हार में जीत</h4>
केवल एक अनार है, और कई बीमार।<br />सारे ही बीमार अब, जता रहे अधिकार।।<br />जीत मिले या हार, नहीं है अन्तर भारी।<br />टिकट मिले की हार समझिए जीत हमारी।।<br /><br /><b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b> <br />
मेरी प्रकाशित पुस्तक<br /><b><span style="color: purple;">'कुर्सी तू बड़भागिनी'</span></b><br />में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल<br /><br />सम्पर्क : 0141-2757575<br />मोबाइल : 98290-70330<br />ईमेल : kavidube@gmail.com </div>
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<h3 style="text-align: left;">
आरक्षण</h3>
<h4 style="text-align: left;">
आग </h4>
अबकी बार चुनाव है, आरक्षण का खेल।<br />इस मुद्दे के सामने, बाकी मुद्दे फेल।।<br />लाठी, गोली, जेल, झुलसना हम देखेंगे।<br />धधक उठी है आग रोटियां वो सेकेंगे।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
इशारे</h4>
कहीं-कहीं मतभेद हैं, और कहीं मनभेद।<br />लोकतंत्र की नाव में, पड़े दिखाई छेद।।<br />नहीं किसी को खेद, अभी हैं दूर किनारे।<br />डूब जाएगी नाव, भँवर के समझ इशारे।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
चक्रव्यूह</h4>
प्रश्न विकट है सामने, सभी धनुर्धर मौन।<br />आरक्षण का चक्रव्यूह, तोड़ेगा अब कौन?<br />सभी अक्ल में पौन, द्रोण रचकर मुस्काए।<br />चकित-थकित अभिमन्यु याद अर्जुन की आए।।<br />
<h4 style="text-align: left;">
आरक्षण</h4>
रेलों ने सबको दिया, अति दुर्लभ यह ज्ञान।<br />आरक्षण यदि नहीं मिला, सफर नहीं आसान?<br />सोओ चादर तान, नहीं अब धक्के खाओ।<br />जनरल बोगी छोड़ बर्थ आरक्षित पाओ।।<br />
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<b>-सुरेन्द्र दुबे (जयपुर)</b> <br />
मेरी प्रकाशित पुस्तक<br /><b><span style="color: purple;">'कुर्सी तू बड़भागिनी'</span></b><br />में प्रयुक्त नवछंद- कुण्डल<br /><br />सम्पर्क : 0141-2757575<br />मोबाइल : 98290-70330<br />ईमेल : kavidube@gmail.com <br /></div>
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