पिछले दिनों सरस्वती जी ने ब्रह्माजी को यह कहते हुए त्याग पत्र दे दिया कि अब मुझे नहीं रहना सरस्वती। आप मेरी जगह किसी अन्य सरस्वती को नियुक्त कर दीजिए। ब्रह्माजी ने पूछा-''देवी आप इतनी कुपित किसलिए हैं। ऐसा क्या हो गया जो आप अपना पद त्याग देने को आमादा हैं? सरस्वती जी ने जवाब दिया-''मैं अभी-अभी एक कवि सम्मेलन सुनकर आ रही हूँ। उस कवि सम्मेलन को सुनने के पश्चात् मैंने यह तय किया है कि मुझे अपने पद पर बने रहने का अब अधिकार नहीं। नैतिकता के नाते मुझे अपना पद छोड़ देना चाहिए।"
ब्रह्माजी ने पूछा- देवी! ऐसा क्या हो गया उस कवि सम्मेलन में जो आप अपना पद छोड़ देने पर आमादा हैं? सरस्वती जी ने जवाब दिया-''क्या-क्या नहीं हुआ? कवि कह रहा था कविता मेरी है और कविता कह रही थी मैं दूसरे की हूँ। कवि कह रहा था कि जो रचना मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ, यह कविता है। और वह रचना कह रही थी कि मैं चुटकुला हूँ। आप ही बताओ इन टिपीकल मुकदमों का फैसला कैसे किया जाए?"
सरस्वती जी की बात सुनकर ब्रह्माजी का दिमाग चकराने लगा। उन्होंने कहा-''देवी! लेकिन ये सारे कवि तो आपके ही उपासक हैं। इन्हें समझा दीजिए। त्याग पत्र देने की क्या जरुरत?" लेकिन बीच में ही बात काटते हुए सरस्वतीजी ने कहा- ''आपको पता नहीं है प्रभो! आजकल के कवि बड़े चालाक हो गए हैं। ये ऊपर से तो मुझमें श्रद्धा दर्शाते है लेकिन सच्चे मन से प्यार लक्ष्मी जी से ही करते हैं। ऐसे में उचित यह रहेगा कि आप मेरे डिपार्टमेंट का एडीशनल चार्ज लक्ष्मी जी को ही दे दीजिए। रही इन मुकदमों की बात तो इनका फैसला तो उनका वाहन ही कर देगा। जाति बिरादरी का फैसला तो वैसे भी भारतीय न्याय शास्त्र में वैसे भी सर्वमान्य होता है।"
ब्रह्माजी बोले-''देवी आपका सुझाव बुरा नहीं है। लेकिन मैं आपका त्याग पत्र स्वीकार नहीं करुँगा। आप मुझे बताएँ कि आप आजकल के इन कवियों से आप क्या कहना चाहती हैं? मैं अभी सबको एस.एम.एस. कर देता हूँ। सब ठीक हो जाएँगे।"
इस पर ब्रह्माजी से सरस्वती जी ने जो कहा वह संस्कृत भाषा में एक श्लोक के रूप में था। उस श्लोक का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है- हे ब्रह्माजी! आप इन कवियों को समझाइये कि कविता नहीं लिखने से न तो अपयश मिलता है। न किसी प्रकार की कोई व्याधि होती है, न पाप लगता और न ही नरक की प्राप्ति होती है। लेकिन बुरी कविता लिखने से और चुराई हुई कविता सुनाने से तथा चुटकुले को कविता बताने से इन चारों की प्राप्ति एक साथ होती है।
Tuesday, April 27, 2010
सरस्वती जी का त्याग पत्र
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सुरेन्द्र दुबे
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27 comments:
waah........kyaa baat kahi hai.
arree waah...kya baat hai...superb
"हा..हा..हा...कितना मज़ेदार व्यंग था...आनन्द आ गया..."
Sir, aapne bilkul thik kaha hai. Main aapki is baat se puri tarah sehmat hoon.
"Aapki baat bilkul sachchi hai,
Ki aaj ke jamane ke anusar
Saraswati ji se to
Laxmi ji jyada achchi hai."
theek kaha aapne.....
badiya drishtant....
sadhuwad..
वाह जी वाह! क्या खूब कहा. इस ज़माने में तो सरस्वतीजी की जगह लक्ष्मीजी ने ही ले रखी है.
waah....saraswati ji ka tyaagpatra bahut badhiyaa
ये सच है कि अब तो सभी देवी-देवताओं में माता लक्ष्मी ही सबसे शक्तिशाली देवी बन गयी है ... अच्छा व्यंग्य है ... बधाई !
मज़ेदार व्यंग्य है...आनन्द आ गया. बधाई
nice ..
,
,,
दुबे जी नमस्कार । आपके हम नाम डॉ.सुरेन्द्र दुबे मेरे पड़ोसी है । उनसे आपके बारे मे सुना था । यहाँ ब्लॉग जगत मे देखकर अच्छा लगा ।
bhut shanddar
bhut shanddar!
कविवर
सचमुच पोस्ट बड़ी ही रोचक है......शानदार पोस्ट !
वाह जी वाह! क्या खूब कहा.वैसे यह भी सच है कि इस ज़माने में तो सरस्वतीजी की जगह लक्ष्मीजी ने ही ले रखी है.
हा हा...हा.....जी अगर हम कभी गलती से भी बुरी कविता लिख बेठे तो हमे जरुर सचेत कीजियेगा....
बहुत सुन्दर सर ...
प्रभो! आजकल के कवि बड़े चालाक हो गए हैं। ये ऊपर से तो मुझमें श्रद्धा दर्शाते है लेकिन सच्चे मन से प्यार लक्ष्मी जी से ही करते हैं......
सही कहा आपने ....बहुत खूब .......!!
हास्य कविता के महारथी को नमन ... .....
मैं आप सब जितना तो शब्दों का धनि नहीं हूँ, लेकिन इतना ही कहूँगा, कि यह अर्टिकल उन कवियों के लिए एक मीठे विष कि छुरी है,, जो कि चोरी कि कवितायेँ बोल कर उसे खुद का बताते हैं, और बेवजह के चुटकुले को कविता का नाम देते हैं!
अंत में बस यही कहूँगा, कि आपका यह अर्टिकल मुझे बेहद उम्दा लगा!
shanddar lekh h........
अच्छा व्यंग है।
दूबे जी ,व्यग्य तो अच्छा लगा
किन्तु मैं कुछ और सोच रही हूँ -
जरूर सरस्वती जी ने ये भी कहा होगा की व्यंग्य लेखक को अपने नाम के आगे कवि लगाना पाप है और आप ये बात बड़ी खूबसूरती से पचा गये
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
acha laga.........
क्या व्यंग्य लिखा है. बधाई.
आईये, मन की शांति का उपाय धारण करें!
आचार्य जी
Interesting ..haha
2018
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