महिला सशक्तिकरण के सरकारी अभियान का परिणाम यह आया कि मेरे घर में पुरुष निशक्तिकरण कार्यक्रम शुरू हो गया। अब पत्नी के सामने मेरी हालत ठीक वैसी है, जैसी कि शेरनी के सामने बंधे हुए बकरे की होती है। जिसे न तो वह खाती है और न ही मारती है, केवल डराती है। डर के मारे बकरे की जान हलक में अटकी रहती है।
घर में घुसते ही आदमी की हस्ती गिर जाती है। शायद इसीलिए घर की व्यवस्था 'घर-गिरहस्ती' कहलाती है। बेचारे आदमी की कोई हस्ती ही नहीं, लेकिन उसकी गिरी हुई हस्ती के प्रति किसी की सहानुभूति भी नहीं है। सभी की सहानुभूति महिलाओं के साथ है। परिणाम सामने है, हमारे देश में महिला आयोग तो है पुरुष आयोग नहीं है। महिलाओं के लिए आयोग और पुरुषों के लिए अभियोग! वाह मेरी सरकार! तुझे भी अन्याय करने का रोग।
महिलाओं को शिकायत है कि साल में सिर्फ एक दिन उनका आता है!! मैं उनसे कहता हू, बेचारे पुरुषों का तो एक भी दिन नहीं आता। बेशक महिला दिवस धूमधाम से मनाइये लेकिन पुरुषों के नाम पर भी दिन न सही, साल में कम से कम एक 'पुरुष रात्रि' तो होनी ही चाहिए। ताकि मामला सन्तुलित रहे।
महिलाओं के लिए लोकसभा व राज्यों की विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण का बिल लगभग डेढ़ दशक से अटका हुआ है। ज्यादातर लोग बिल के समर्थक हैं। कुछ कट्टर विरोधी हैं। महिला आरक्षण का विरोध करने वाले मेरे मुहल्ले के एक नेता से मैंने प्रश्न किया-"आप महिला आरक्षण का विरोध क्यों कर रहे हैं? अगर महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण मिल भी गया तो क्या बिगड़ जाएगा?"
वे बोले- "दुबे जी! आप समझते ही नहीं हैं? समस्या उलझी हुई है। दूर तक की सोच जरूरी है। अगर हमने 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दीं तो उतनी ही आबादी पुरुषों की भी है। देर-सवेर 33 प्रतिशत सीटें पुरुषों के लिए भी आरक्षित करनी पड़ेगी। इस प्रकार 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए तथा 33 प्रतिशत सीटें पुरुषों के लिए आरक्षित हो जाएंगी। अब मान लो कुल 66 प्रतिशत सीटें महिलाओं और पुरुषों के लिए आरक्षित हो गईं, तो यहीं से मुसीबत शुरू होगी।"
मैंने पूछा- "क्या मुसीबत होगी?"
वे बोले- "बची हुई 34 प्रतिशत सीटों पर जो जीतकर आएगे वो क्या कहलाएगे? इसलिए हम विरोध कर रहे हैं।"
महिलाओं के प्रति पुरुषों का अन्याय जग-जाहिर है, लेकिन महिलाओं का पुरुषों के प्रति अन्याय है तो सही पर जगजाहिर नहीं। वह व्यक्तिगत है। बेचारा पुरुष भीतर-भीतर ही रोता रहता है। महिलाएं तो कह भी देती हैं। रो भी पड़ती हैं। लेकिन बेचारा पुरुष तो कह भी नहीं सकता और रो भी नहीं पाता। इसलिए उसकी पीड़ा की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता।
महिलाओं के प्रति अन्याय समाप्त होना ही चाहिए। उसके लिए जो भी सम्भव हो प्रयास किए जाने चाहिए, लेकिन एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए दूसरी अन्यायपूर्ण व्यवस्था को जन्म देने के हुनर में हमारी सरकारों का कोई जवाब ही नहीं है। कुल मिलाकर अब पुरुषों के हिस्से में तो रोना ही है, क्योंकि जिस समाज के माथे पर कन्या भ्रूण हत्या का कलंक लगा हो, उसमें यह सब तो होना ही है।
Monday, March 8, 2010
महिला सशक्तिकरण बनाम पुरुष निशक्तिकरण
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9 comments:
Anek shubhkamnayen!
वाह वाह वाह
एक अच्छा और खूबसूरत ब्लाग देने के लिए धन्यवाद
http://chokhat.blogspot.com/
हा हा हा बहुत खूब । स्वागत है आपका। मगर हमारा बुढापा तो समझो संवर गया यकीन नही तो मेरी पोस्ट जरूर देखें आज। धन्यवाद्
बहुत-बहुत शुभकामनाएं। आइये, और दो कदम साथ चलें।
बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
बहुत खूब सर.........
good sir
पुरुषों का दर्द अच्छी तरह बयां किया है ...:):) बहुत खूब
sabke purusho ke man ki baat h ye . aur asha h ki aap ka niji anubhav bhi hoga isme kuch kyo meine galt kaha kya kuch.
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